विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 84
[ " शरीर के प्रति आसक्ति को दूर हटाओ और यह भाव करो कि मैं सर्वत्र हूं . जो सर्वत्र है वो आनंदित है ." ]
और जिस क्षण तुम आसक्ति को दूर हटाओगे , तुम्हें बोध होगा कि मैं सर्वत्र हूं . इस आसक्ति के कारण तुम्हें महसूस होता है कि मैं शरीर में सीमित हूं . शरीर तुम्हें नहीं सीमित करता है तुम्हारी आसक्ति तुम्हें सीमित करती है . शरीर तुम्हारे और सत्य के बीच अवरोध नहीं निर्मित करता है , उसके प्रति तुम्हारी आसक्ति अवरोध निर्मित करती है . एक बार तुम जान गए कि आसक्ति नहीं है तो फिर तुम्हारा कोई शरीर भी नहीं है-- अथवा सारा अस्तित्व तुम्हारा शरीर बन जाता है ; तुम्हारा शरीर समग्र अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है . तब वह पृथक नहीं है . सच तो यह है तुम्हारा शरीर तुम्हारे पास आया निकटतम अस्तित्व है ; और कुछ नहीं . शरीर निकटतम अस्तित्व है , और वही फिर फैलता जाता है . तुम्हारा शरीर अस्तित्व का निकटतम हिस्सा है और फिर सारा अस्तित्व फैलता जाता है .एक बार तुम्हारी आसक्ति गई कि तुम्हारे लिए शरीर न रहा , अथवा समस्त अस्तित्व तुम्हारा शरीर बन जाता है . तब तुम सर्वत्र हो सब तरफ हो . शरीर में तुम एक जगह हो ; शरीर के बिना तुम सर्वत्र हो . शरीर में तुम एक स्थान में सीमित हो ; शरीर के बिना तुम पर कोई सीमा न रही . यही कारण है कि जिन्होंने जाना है वे कहते हैं कि शरीर कारागृह है . दरअसल , शरीर कारागृह नहीं है , आसक्ति कारागृह है . जब तुम्हारी निगाह शरीर पर ही सीमित नहीं है तब तुम सर्वत्र हो .
और जिस क्षण तुम आसक्ति को दूर हटाओगे , तुम्हें बोध होगा कि मैं सर्वत्र हूं . इस आसक्ति के कारण तुम्हें महसूस होता है कि मैं शरीर में सीमित हूं . शरीर तुम्हें नहीं सीमित करता है तुम्हारी आसक्ति तुम्हें सीमित करती है . शरीर तुम्हारे और सत्य के बीच अवरोध नहीं निर्मित करता है , उसके प्रति तुम्हारी आसक्ति अवरोध निर्मित करती है . एक बार तुम जान गए कि आसक्ति नहीं है तो फिर तुम्हारा कोई शरीर भी नहीं है-- अथवा सारा अस्तित्व तुम्हारा शरीर बन जाता है ; तुम्हारा शरीर समग्र अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है . तब वह पृथक नहीं है . सच तो यह है तुम्हारा शरीर तुम्हारे पास आया निकटतम अस्तित्व है ; और कुछ नहीं . शरीर निकटतम अस्तित्व है , और वही फिर फैलता जाता है . तुम्हारा शरीर अस्तित्व का निकटतम हिस्सा है और फिर सारा अस्तित्व फैलता जाता है .एक बार तुम्हारी आसक्ति गई कि तुम्हारे लिए शरीर न रहा , अथवा समस्त अस्तित्व तुम्हारा शरीर बन जाता है . तब तुम सर्वत्र हो सब तरफ हो . शरीर में तुम एक जगह हो ; शरीर के बिना तुम सर्वत्र हो . शरीर में तुम एक स्थान में सीमित हो ; शरीर के बिना तुम पर कोई सीमा न रही . यही कारण है कि जिन्होंने जाना है वे कहते हैं कि शरीर कारागृह है . दरअसल , शरीर कारागृह नहीं है , आसक्ति कारागृह है . जब तुम्हारी निगाह शरीर पर ही सीमित नहीं है तब तुम सर्वत्र हो .
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