विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 89
[ " हे प्रिये , इस क्षण में मन ,ज्ञान , प्राण , रूप , सब को समाविष्ट होने दो . " ]
यह विधि थोड़ी कठिन है . लेकिन अगर तुम इसे प्रयोग कर सको तो यह विधि बहुत अद्भुत और सुंदर है . ध्यान में बैठो तो कोई विभाजन मत करो ; ध्यान में बैठे उए सब को-- तुम्हारे शरीर , तम्हारे मन , तुम्हारे प्राण , तुम्हारे विचार , तुम्हारे ज्ञान-- सब को समाविष्ट कर लो . सब को समेट लो , सब को सम्मिलित कर लो . कोई विभाजन मत करो , उन्हें खंडों में मत बांटों .
सांस आती है और जाती है . विचार आता है और चला जाता है . शरीर का रूप बदलता रहता है . इस पर तुमने कभी ध्यान नहीं दिया है . अगर तुम आंखें बंद करके बैठो तो तुम्हें कभी लगेगा कि मेरा शरीर बहुत बड़ा है और कभी लगेगा कि मेरा शरीर बिलकुल छोटा है . कभी शरीर बहुत भारी मालूम पड़ता है और कभी इतना हलका कि तुम्हें लगेगा कि मैं उड़ सकता हूं . इस रूप के घटने-बढ़ने को तुम अनुभव कर सकते हो . आंखों को बंद कर लो और बैठ जाओ . और तुम अनुभव करोगे कभी शरीर बहुत बड़ा है , इतना बड़ा कि सारा कमरा भर जाए और कभी इतना छोटा लगेगा जैसे कि अणु हो . यह रूप क्यों बदलता है ? जैसे-जैसे तुम्हारा ध्यान बदलता है वैसे-वैसे तुम्हारे शरीर का रूप भी बदलता है . अगर तुम्हारा ध्यान सर्वग्राही है तो रूप बहुत बड़ा हो जाएगा . और अगर तुम तोड़ते हो , विभाजन करते हो , कहते हो कि मैं यह नहीं , यह नहीं , तो रूप बहुत छोटा , बहुत सूक्ष्म और आणविक हो जाता है .
अपने अस्तित्व में सब को सम्मिलित करो , किसी को भी अलग मत करो , बाहर मत करो . मत कहो कहो कि मैं यह नहीं हूं ; कहो कि मैं यह हूं और सब को सम्मिलित कर लो . अगर तुम इतना ही कर सको तो तुम्हें बिलकुल नए अनुभव , अद्भुत अनुभव घटित होंगे . तुम्हें अनुभव होगा कि कोई केन्द्र नहीं है , मेरा कोई केन्द्र नहीं है . और केन्द्र के जाते ही अहंभाव नहीं रहता , अहंकार नहीं रहता . केन्द्र के जाते ही केवल चैतन्य रहता है-- आकाश जैसा चैतन्य जो सब को घेरे हुए है . और जब यह प्रतीति बढ़ती है तो तुममें न सिर्फ तुम्हारी सांस समाहित होगी , न केवल तुम्हारा रूप समाहित होगा , बल्कि अंततः तुममें सारा ब्रह्मांड समाहित हो जाएगा .
यह विधि थोड़ी कठिन है . लेकिन अगर तुम इसे प्रयोग कर सको तो यह विधि बहुत अद्भुत और सुंदर है . ध्यान में बैठो तो कोई विभाजन मत करो ; ध्यान में बैठे उए सब को-- तुम्हारे शरीर , तम्हारे मन , तुम्हारे प्राण , तुम्हारे विचार , तुम्हारे ज्ञान-- सब को समाविष्ट कर लो . सब को समेट लो , सब को सम्मिलित कर लो . कोई विभाजन मत करो , उन्हें खंडों में मत बांटों .
सांस आती है और जाती है . विचार आता है और चला जाता है . शरीर का रूप बदलता रहता है . इस पर तुमने कभी ध्यान नहीं दिया है . अगर तुम आंखें बंद करके बैठो तो तुम्हें कभी लगेगा कि मेरा शरीर बहुत बड़ा है और कभी लगेगा कि मेरा शरीर बिलकुल छोटा है . कभी शरीर बहुत भारी मालूम पड़ता है और कभी इतना हलका कि तुम्हें लगेगा कि मैं उड़ सकता हूं . इस रूप के घटने-बढ़ने को तुम अनुभव कर सकते हो . आंखों को बंद कर लो और बैठ जाओ . और तुम अनुभव करोगे कभी शरीर बहुत बड़ा है , इतना बड़ा कि सारा कमरा भर जाए और कभी इतना छोटा लगेगा जैसे कि अणु हो . यह रूप क्यों बदलता है ? जैसे-जैसे तुम्हारा ध्यान बदलता है वैसे-वैसे तुम्हारे शरीर का रूप भी बदलता है . अगर तुम्हारा ध्यान सर्वग्राही है तो रूप बहुत बड़ा हो जाएगा . और अगर तुम तोड़ते हो , विभाजन करते हो , कहते हो कि मैं यह नहीं , यह नहीं , तो रूप बहुत छोटा , बहुत सूक्ष्म और आणविक हो जाता है .
अपने अस्तित्व में सब को सम्मिलित करो , किसी को भी अलग मत करो , बाहर मत करो . मत कहो कहो कि मैं यह नहीं हूं ; कहो कि मैं यह हूं और सब को सम्मिलित कर लो . अगर तुम इतना ही कर सको तो तुम्हें बिलकुल नए अनुभव , अद्भुत अनुभव घटित होंगे . तुम्हें अनुभव होगा कि कोई केन्द्र नहीं है , मेरा कोई केन्द्र नहीं है . और केन्द्र के जाते ही अहंभाव नहीं रहता , अहंकार नहीं रहता . केन्द्र के जाते ही केवल चैतन्य रहता है-- आकाश जैसा चैतन्य जो सब को घेरे हुए है . और जब यह प्रतीति बढ़ती है तो तुममें न सिर्फ तुम्हारी सांस समाहित होगी , न केवल तुम्हारा रूप समाहित होगा , बल्कि अंततः तुममें सारा ब्रह्मांड समाहित हो जाएगा .
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