विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 96
[ " किसी ऐसे स्थान पर वास करो जो अंतहीन रूप से विस्तीर्ण हो . " ]
किसी पहाड़ी पर चले जाओ जहां से तुम अंतहीन दूरी तक देख सको . यदि तुम अंतहीन रूप से देख सको , तुम्हारी दृष्टि कहीं रुके नहीं , तो अहंकार मिट जाता है . अहंकार के लिए सीमाओं की जरुरत होती है . सीमाएं जितनी सुनिश्चित हों , अहंकार के लिए उतना ही सरल हो जाता है .
' किसी ऐसे स्थान पर वास करो जो अंतहीन रूप से विस्तीर्ण हो , वृक्षों , पहाड़ियों , प्राणियों से रहित हो . तब मन के भारों का अंत हो जाता है . ' मन बहुत सूक्ष्म है . तुम एक पहाड़ी पर हो जहां और कोई नहीं है , लेकिन नीचे कहीं तुम्हें कोई झोपड़ी दिखाई दे जाए तो तुम उस झोपड़ी से बातें करने लगोगे , उससे संबंध जोड़ लोगे-- समाज आ गया . तुम नहीं जानते कि वहां कौन रहता है , लेकिन कोई रहता है , और वही सीमा बन जाती है . तुम सोचने लगोगे कि कौन वहां रहता है . रोज तुम्हारी नज़रें उसे खोजने लगेंगी . झोपड़ी मनुष्यता की प्रतीक बन जाएगी .
तो वृक्ष भी न हों , क्योंकि जो लोग अकेले होते हैं वे वृक्षों से बोलना शुरू कर देते हैं , उनसे मित्रता कर लेते हैं , बात-चीत करने लगते हैं . तुम उस व्यक्ति की कठिनाई को नहीं समझ सकते जो अकेला होने के लिए चला गया है . वह चाहता है कि कोई उसके पास हो . तो वह वृक्षों को ही नमस्ते और आप कैसे हैं कहना शुरू कर देगा ..और वृक्ष भी प्राणी हैं . यदि तुम ईमानदार हो तो वे भी जवाब देना शुरूकर देंगे , वहां प्रतिसंवेदन होगा . तो तुम समाज खड़ा कर सकते हो . कुछ समय के लिए थोड़ा अलग हट जाओ ,ताकि एक दूरी से देख सको कि तुम क्या हो और समाज तुम्हारे साथ क्या कर रहा है . समाज से बाहर होकर तुम बेहतर ढंग से देख सकते हो . तुम दृष्टा हो सकते हो . समाज से बिना जुड़े , बिना उसमें हुए , तुम पर्वत शिखर पर बैठे एक दृष्टा , एक साक्षी हो सकते हो . तुम इतनी दूर हो--बिना विचलित हुए , पक्षपात-रहित तुम देख सकते हो
किसी पहाड़ी पर चले जाओ जहां से तुम अंतहीन दूरी तक देख सको . यदि तुम अंतहीन रूप से देख सको , तुम्हारी दृष्टि कहीं रुके नहीं , तो अहंकार मिट जाता है . अहंकार के लिए सीमाओं की जरुरत होती है . सीमाएं जितनी सुनिश्चित हों , अहंकार के लिए उतना ही सरल हो जाता है .
' किसी ऐसे स्थान पर वास करो जो अंतहीन रूप से विस्तीर्ण हो , वृक्षों , पहाड़ियों , प्राणियों से रहित हो . तब मन के भारों का अंत हो जाता है . ' मन बहुत सूक्ष्म है . तुम एक पहाड़ी पर हो जहां और कोई नहीं है , लेकिन नीचे कहीं तुम्हें कोई झोपड़ी दिखाई दे जाए तो तुम उस झोपड़ी से बातें करने लगोगे , उससे संबंध जोड़ लोगे-- समाज आ गया . तुम नहीं जानते कि वहां कौन रहता है , लेकिन कोई रहता है , और वही सीमा बन जाती है . तुम सोचने लगोगे कि कौन वहां रहता है . रोज तुम्हारी नज़रें उसे खोजने लगेंगी . झोपड़ी मनुष्यता की प्रतीक बन जाएगी .
तो वृक्ष भी न हों , क्योंकि जो लोग अकेले होते हैं वे वृक्षों से बोलना शुरू कर देते हैं , उनसे मित्रता कर लेते हैं , बात-चीत करने लगते हैं . तुम उस व्यक्ति की कठिनाई को नहीं समझ सकते जो अकेला होने के लिए चला गया है . वह चाहता है कि कोई उसके पास हो . तो वह वृक्षों को ही नमस्ते और आप कैसे हैं कहना शुरू कर देगा ..और वृक्ष भी प्राणी हैं . यदि तुम ईमानदार हो तो वे भी जवाब देना शुरूकर देंगे , वहां प्रतिसंवेदन होगा . तो तुम समाज खड़ा कर सकते हो . कुछ समय के लिए थोड़ा अलग हट जाओ ,ताकि एक दूरी से देख सको कि तुम क्या हो और समाज तुम्हारे साथ क्या कर रहा है . समाज से बाहर होकर तुम बेहतर ढंग से देख सकते हो . तुम दृष्टा हो सकते हो . समाज से बिना जुड़े , बिना उसमें हुए , तुम पर्वत शिखर पर बैठे एक दृष्टा , एक साक्षी हो सकते हो . तुम इतनी दूर हो--बिना विचलित हुए , पक्षपात-रहित तुम देख सकते हो
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