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    साक्षीभाव हो तो भीतर का दीया जल जाता है, जीवन में पाप विलीन हो जाता है - ओशो

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    साक्षीभाव हो तो भीतर का दीया जल जाता है, जीवन में पाप विलीन हो जाता है - ओशो 


    बुद्ध के संबंध में कहा गया है, उनके पास दस हजार भिक्षु हमेशा चलते थे। देखते थे उनका उठना, बैठना, सोना, सब देखते थे। भिक्षु बड़े हैरान थे, बुद्ध जिस करवट सोते थे रात भर उसी करवट सोए रहते थे, करवट नहीं बदलते थे। जो पैर जहां रखते थे वहीं रखे रहते थे, रात भर पैर नहीं हिलाते थे। जो हाथ जहां रखते थे वहीं रखे रखते थे, रात भर हाथ भी नहीं हिलाते थे ।

    अनेक लोगों ने अनेक बार सोचा कि मामला क्या है ? रात भर एक ही करवट, एक ही तरह से, जहां पैर, जहां हाथ वहीं बुद्ध कैसे सोए रहते हैं ?

    तो उनके भिक्षु आनंद ने एक दिन पूछा कि क्या हमें यह पूछने की आज्ञा आप देंगे कि रात भर आपका पैर भी नहीं कंपता, हाथ भी नहीं हिलता, करवट जिस सोते हैं वही बनी रहती है।

    बुद्ध ने कहा, स्मृतिपूर्वक सोता हूं। बुद्ध ने कहा, स्मृतिपूर्वक सोता हूं। साक्षीभाव तब भी बना रहता है, तो इसलिए अपने आप हाथ-पैर नहीं यहां वहां हो सकते जब तक मैं न चाहूं, जब तक मैं न बदलना चाहूं । मेरे भीतर कोई जागा है और देख रहा है।

    यहां तक कि जागने की शारीरिक क्रियाओं में तो साक्षीभाव हो ही सकता है, निद्रा के समय भी हो जाता है। लेकिन जिस-जिस मात्रा में चेतना जगेगी उस-उस मात्रा में वैसा होगा। अभी तो हमें कोई साक्षीभाव नहीं होता। अभी तो हम सब किए चले जाते हैं। जब क्रोध आकर चला जाता है तब हमें पता चलता है कि क्रोध कर लिया। जब कोई आदमी किसी की हत्या कर देता है तब खून के फव्वारे छूटे देख कर खयाल में आता है कि यह मैंने क्या कर दिया। होश ही नहीं था जब किया, होश ही नहीं था जब क्रोध किया । इसलिए पीछे पछताते हैं । क्रोध करने के बाद क्रोधी पछताता है कि यह मैंने क्या कर दिया। यह तो मैंने बहुत बुरा कर दिया।

    लेकिन बड़ी आश्चर्य की बात है, तुम थे कहां ? जब तुमने किया तब तुम कहां थे? फिर कल, आज पछताएगा कल फिर क्रोध करेगा, फिर पछताएगा। कहेगा कि बड़ा बुरा हो गया। कितनी दफा तय करता हूं कि क्रोध न करूं, फिर न मालूम क्या हो जाता है? असल में हो क्या जाता है, होश है ही नहीं। तो तय करते हैं फिर बेहोशी पकड़ लेती है। तय करने का कोई परिणाम नहीं होता, संकल्प का कोई परिणाम नहीं होता । संकल्प का कोई परिणाम हो ही नहीं सकता जब तक कि भीतर जागरण न हो, होश न हो, साक्षीभाव न हो । निश्चित ही शरीर की क्रियाओं के प्रति साक्षी का भाव हो सकता है। किसी भी क्रिया के प्रति हो सकता है। भोजन करते हैं, साक्षीभाव से करें, देखते हुए करें, होश रखें कि भोजन कर रहा हूं। एक-एक क्रिया दिखाई पड़े, कौर बनाया गया, उठाया गया, मुंह में ले जाया गया, पानी उठाया गया, पीया गया, एक-एक छोटे-छोटे बिंदु को जानते हुए करें । भीतर होश बना रहे, भीतर स्मरण जागृति बनी रहे । तो शरीर की क्रियाओं में भी जागरण होगा। मन की क्रियाओं में भी जागरण होगा। और जब शरीर और मन दोनों की क्रियाओं में जागरण होगा, तो एक अदभुत जागी हुई चैतन्य स्थिति आप सतत अनुभव कर पाएंगे। अभी तो ऐसा है हम ऐसे घर हैं जिसका दीया बुझा हुआ है। तब हम ऐसे घर होंगे जिसका दीया जला हुआ है। साक्षीभाव हो तो दीया जल जाता है। और जब भीतर दीया जले तो जीवन में पाप विलीन हो जाता है।

     - ओशो 

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