विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 26
[" जब कोई कामना उठे , उस पर विमर्श करो . फिर , अचानक , उसे छोड़ दो ."]
तुम्हें कोई इच्छा होती है-- चाहे वह कामवासना हो , चाहे प्रेम की इच्छा हो , चाहे भोजन की इच्छा हो . तुम्हें इच्छा होती है तो उस पर विमर्श करो . जब यह सूत्र कहता है कि विमर्श करो तो उसका मतलब होता है कि उसके पक्ष या विपक्ष में विचार मत करो , बल्कि देखो कि वह इच्छा क्या है . मन में कामवासना पैदा होती है और तुम कहते हो कि यह बुरी है . यह विमर्श करना नहीं हुआ . तुम्हें सिखाया गया है कि कामवासना बुरी है . इसलिए उसे बुरा कहना विमर्श नहीं है . तुम शास्त्रों से पूछ रहे हो . तुम अतीत से पूछ रहे हो . तुम गुरुओं और ऋषियों से पूछ रहे हो . तुम स्वयं कामना पर विमर्श नहीं कर रहे हो . तुम किसी और चीज पर विमर्श कर रहे हो . हो सकता है , वह तुम्हारा संस्कार हो , तुम्हारे पालन-पोषण की शैली हो , तुम्हारी शिक्षा हो . तुम्हारी संस्कृति हो , तुम्हारा धर्म हो . तुम उन पर विचार कर रहे हो , कामना पर विमर्श नहीं . समझो कि कामवासना है और तुम उसके पक्ष या विपक्ष में नहीं हो , उसके संबंध में तुम्हारी कोई धारणा नहीं है , तुम सिर्फ उसे देख रहे हो . तो इस देखने भर से तुम्हारा पूरा अस्तित्व उस कामना में संलग्न हो जायेगा . एक अकेली कामवासना आग की लपट बन जायेगी . उस लपट में तुम्हारा सारा अस्तित्व जलने लगेगा-- मानो कि तुम समग्ररूपेण कामुक हो उठे हो . तब कामवासना काम-केन्द्र पर ही सीमित नहीं रहेगी , वह तुम्हारे पूरे शरीर पर फ़ैल जायेगी , तुम्हारे शरीर का एक-एक तंतु कांपने लगेगा . कामना अंगार बन जायेगी ; तब उसे छोड़ दो , उससे अचानक हट जाओ . उससे लड़ो मत , इतना ही कहो कि मैं छोड़ता हूँ . तब क्या होगा ? ज्यों ही तुम कहते हो कि मैं छोड़ता हूँ , एक अलगाव घटित होता है . तुम्हारा शरीर , कामोत्तप्त शरीर और तुम दो हो जाते हो . अचानक एक क्षण को भीतर उनके बीच जमीन-आसमान की दूरी पैदा हो गई . शरीर तो आवेग से , कामवासना से उद्वेलित है और केन्द्र शांत है , मात्र देख रहा है . स्मरण रहे , वहां कोई संघर्ष नहीं है , सिर्फ अलगाव है . संघर्ष में तुम अलग नहीं होते , जब तुम लड़ते हो , तुम लड़ाई के विषय के साथ एक होते हो . तुम जब मात्र छोड़ देते हो तब तुम अलग होते हो , तब तुम इसे देख सकते हो -- मानो तुम नहीं , कोई दूसरा देख रहा है .
तुम्हें कोई इच्छा होती है-- चाहे वह कामवासना हो , चाहे प्रेम की इच्छा हो , चाहे भोजन की इच्छा हो . तुम्हें इच्छा होती है तो उस पर विमर्श करो . जब यह सूत्र कहता है कि विमर्श करो तो उसका मतलब होता है कि उसके पक्ष या विपक्ष में विचार मत करो , बल्कि देखो कि वह इच्छा क्या है . मन में कामवासना पैदा होती है और तुम कहते हो कि यह बुरी है . यह विमर्श करना नहीं हुआ . तुम्हें सिखाया गया है कि कामवासना बुरी है . इसलिए उसे बुरा कहना विमर्श नहीं है . तुम शास्त्रों से पूछ रहे हो . तुम अतीत से पूछ रहे हो . तुम गुरुओं और ऋषियों से पूछ रहे हो . तुम स्वयं कामना पर विमर्श नहीं कर रहे हो . तुम किसी और चीज पर विमर्श कर रहे हो . हो सकता है , वह तुम्हारा संस्कार हो , तुम्हारे पालन-पोषण की शैली हो , तुम्हारी शिक्षा हो . तुम्हारी संस्कृति हो , तुम्हारा धर्म हो . तुम उन पर विचार कर रहे हो , कामना पर विमर्श नहीं . समझो कि कामवासना है और तुम उसके पक्ष या विपक्ष में नहीं हो , उसके संबंध में तुम्हारी कोई धारणा नहीं है , तुम सिर्फ उसे देख रहे हो . तो इस देखने भर से तुम्हारा पूरा अस्तित्व उस कामना में संलग्न हो जायेगा . एक अकेली कामवासना आग की लपट बन जायेगी . उस लपट में तुम्हारा सारा अस्तित्व जलने लगेगा-- मानो कि तुम समग्ररूपेण कामुक हो उठे हो . तब कामवासना काम-केन्द्र पर ही सीमित नहीं रहेगी , वह तुम्हारे पूरे शरीर पर फ़ैल जायेगी , तुम्हारे शरीर का एक-एक तंतु कांपने लगेगा . कामना अंगार बन जायेगी ; तब उसे छोड़ दो , उससे अचानक हट जाओ . उससे लड़ो मत , इतना ही कहो कि मैं छोड़ता हूँ . तब क्या होगा ? ज्यों ही तुम कहते हो कि मैं छोड़ता हूँ , एक अलगाव घटित होता है . तुम्हारा शरीर , कामोत्तप्त शरीर और तुम दो हो जाते हो . अचानक एक क्षण को भीतर उनके बीच जमीन-आसमान की दूरी पैदा हो गई . शरीर तो आवेग से , कामवासना से उद्वेलित है और केन्द्र शांत है , मात्र देख रहा है . स्मरण रहे , वहां कोई संघर्ष नहीं है , सिर्फ अलगाव है . संघर्ष में तुम अलग नहीं होते , जब तुम लड़ते हो , तुम लड़ाई के विषय के साथ एक होते हो . तुम जब मात्र छोड़ देते हो तब तुम अलग होते हो , तब तुम इसे देख सकते हो -- मानो तुम नहीं , कोई दूसरा देख रहा है .
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