विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 29
[" भक्ति मुक्त करती है "]
प्रेम भक्ति बन सकता है . प्रेम पहला चरण है , तभी भक्ति का फूल खिलता है . यदि तुम्हारा प्रेम गहरा हो तो दूसा ज्यादा-ज्यादा अर्थपूर्ण हो जाता है-- वह इतना अर्थपूर्ण हो जाता है कि तुम उसे अपना भगवान कहने लगते हो . यही कारण है मीरा कृष्ण को प्रभु कहे चली जाती है . न कृष्ण को कोई देख सकता है , न मीरा सिद्ध कर सकती है कि कृष्ण वहां हैं ; लेकिन मीरा इसे सिद्ध करने में उत्सुक भी नहीं है . मीरा ने कृष्ण को अपना प्रेम-पात्र बना लिया है. और याद रहे , तुम किसी यथार्थ व्यक्ति को अपना प्रेम-पात्र बनाते हो या किसी कल्पना के व्यक्ति को , इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है . कारण यह है कि सारा रूपांतरण भक्ति के माध्यम से आता है , प्रेम-पात्र के माध्यम से नहीं . इस बात को सदा स्मरण रखो . कृष्ण नहीं भी हो सकते हैं ; यह आप्रासंगिक है . प्रेम के लिए आप्रासंगिक है . मैं या बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि कृष्ण के होने न होने का प्रश्न नहीं है , बिलकुल नहीं है ; यह भाव कि कृष्ण हैं , यह समग्र प्रेम का भाव , यह समग्र समर्पण , यह किसी में अपने को विलीन कर देना , चाहे वह हो या न हो , यह विलीन हो जाना ही रूपांतरण है . अचानक व्यक्ति शुद्ध हो जाता है , समग्ररूपेण शुद्ध हो जाता है .क्योंकि जब अहंकार ही नहीं है तो तुम किसी रूप में भी अशुद्ध नहीं हो सकते . अहंकार ही सब अशुद्धि का बीज है . अहंकार का भाव ही सब विक्षिप्तता का जनक है . भाव के जगत के लिए , भक्त के जगत के लिए अहंकार रोग है . यह अहंकार एक ही उपाय से विसर्जित होता है-- कोई दूसरा उपाय नहीं है-- वह उपाय यह है कि दूसरा इतना महत्वपूर्ण हो जाए , इतना महिमापूर्ण हो जाए कि तुम धीरे-धीरे विलीन हो जाओ , और एक दिन तुम बिलकुल ही न बचो , सिर्फ दूसरे का बोध रह जाए . और जब तुम न रहे तो दूसरा दूसरा नहीं रह जाता है ; क्योंकि दूसरा दूसरा तब तक है जब तक तुम हो . जब मैं विदा होता है तो उसके साथ तू भी विदा हो जाता है .
प्रेम भक्ति बन सकता है . प्रेम पहला चरण है , तभी भक्ति का फूल खिलता है . यदि तुम्हारा प्रेम गहरा हो तो दूसा ज्यादा-ज्यादा अर्थपूर्ण हो जाता है-- वह इतना अर्थपूर्ण हो जाता है कि तुम उसे अपना भगवान कहने लगते हो . यही कारण है मीरा कृष्ण को प्रभु कहे चली जाती है . न कृष्ण को कोई देख सकता है , न मीरा सिद्ध कर सकती है कि कृष्ण वहां हैं ; लेकिन मीरा इसे सिद्ध करने में उत्सुक भी नहीं है . मीरा ने कृष्ण को अपना प्रेम-पात्र बना लिया है. और याद रहे , तुम किसी यथार्थ व्यक्ति को अपना प्रेम-पात्र बनाते हो या किसी कल्पना के व्यक्ति को , इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है . कारण यह है कि सारा रूपांतरण भक्ति के माध्यम से आता है , प्रेम-पात्र के माध्यम से नहीं . इस बात को सदा स्मरण रखो . कृष्ण नहीं भी हो सकते हैं ; यह आप्रासंगिक है . प्रेम के लिए आप्रासंगिक है . मैं या बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि कृष्ण के होने न होने का प्रश्न नहीं है , बिलकुल नहीं है ; यह भाव कि कृष्ण हैं , यह समग्र प्रेम का भाव , यह समग्र समर्पण , यह किसी में अपने को विलीन कर देना , चाहे वह हो या न हो , यह विलीन हो जाना ही रूपांतरण है . अचानक व्यक्ति शुद्ध हो जाता है , समग्ररूपेण शुद्ध हो जाता है .क्योंकि जब अहंकार ही नहीं है तो तुम किसी रूप में भी अशुद्ध नहीं हो सकते . अहंकार ही सब अशुद्धि का बीज है . अहंकार का भाव ही सब विक्षिप्तता का जनक है . भाव के जगत के लिए , भक्त के जगत के लिए अहंकार रोग है . यह अहंकार एक ही उपाय से विसर्जित होता है-- कोई दूसरा उपाय नहीं है-- वह उपाय यह है कि दूसरा इतना महत्वपूर्ण हो जाए , इतना महिमापूर्ण हो जाए कि तुम धीरे-धीरे विलीन हो जाओ , और एक दिन तुम बिलकुल ही न बचो , सिर्फ दूसरे का बोध रह जाए . और जब तुम न रहे तो दूसरा दूसरा नहीं रह जाता है ; क्योंकि दूसरा दूसरा तब तक है जब तक तुम हो . जब मैं विदा होता है तो उसके साथ तू भी विदा हो जाता है .
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