विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 81
[ "भाव करो कि एक आग तम्हारे पांव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है और अंततः शरीर जलकर राख हो जाता है ; लेकिन तुम नहीं . "]
यह बहुत सरल विधि है और बहुत अद्भुत है , प्रयोग करने में भी सरल है . लेकिन पहले कुछ बुनियादी जरूरतें पूरी करनी होती हैं .
बस लेट जाओ . पहले भाव करो क तुम मर गए हो , शरीर एक शव मात्र है . लेटे रहो और अपने ध्यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ . आंखें बंद करके भीतर गति करो . अपने ध्यान को अंगूठों पर ले जाओ और भाव करो कि वहां से आग ऊपर बढ़ रही है और सब कुछ जल रहा है ; जैसे-जैसे आग बढ़ती है वैसे-वैसे तुम्हारा शरीर विलीन हो रहा है . अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो . अंगूठे से क्यों शुरू करो ? यह आसान होगा , क्योंकि अंगूठा तुम्हारे ' मैं ' से , तुम्हारे अहंकार से बहुत दूर है . तुम्हारा अहंकार सिर में केंद्रित है ; वहां से शुरू करना कठिन होगा . तो दूर के बिंदु से शुरू करो ; भाव करो कि अंगूठे जल गए हैं , सिर्फ राख बची है . और फिर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ो और जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ . सारे अंग-- पैर , जांघ-- विलीन हो जाएंगे . और देखते जाओ कि अंग-अंग राख हो रहे है ; जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं हैं , वे राख हो गए हैं . ऊपर बढ़ते जाओ ; और अंत में सिर भी विलीन हो जाता है . प्रत्येक चीज राख हो गई है ; धूल-धूल में मिल गई है . तुम शिखर पर खड़े दृष्टा रह जाओगे , साक्षी रह जाओगे . शरीर वहां पड़ा होगा-- मृत , जला हुआ , राख-- और तुम दृष्टा होगे , साक्षी होगे . इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है .
यह बहुत सरल विधि है और बहुत अद्भुत है , प्रयोग करने में भी सरल है . लेकिन पहले कुछ बुनियादी जरूरतें पूरी करनी होती हैं .
बस लेट जाओ . पहले भाव करो क तुम मर गए हो , शरीर एक शव मात्र है . लेटे रहो और अपने ध्यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ . आंखें बंद करके भीतर गति करो . अपने ध्यान को अंगूठों पर ले जाओ और भाव करो कि वहां से आग ऊपर बढ़ रही है और सब कुछ जल रहा है ; जैसे-जैसे आग बढ़ती है वैसे-वैसे तुम्हारा शरीर विलीन हो रहा है . अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो . अंगूठे से क्यों शुरू करो ? यह आसान होगा , क्योंकि अंगूठा तुम्हारे ' मैं ' से , तुम्हारे अहंकार से बहुत दूर है . तुम्हारा अहंकार सिर में केंद्रित है ; वहां से शुरू करना कठिन होगा . तो दूर के बिंदु से शुरू करो ; भाव करो कि अंगूठे जल गए हैं , सिर्फ राख बची है . और फिर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ो और जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ . सारे अंग-- पैर , जांघ-- विलीन हो जाएंगे . और देखते जाओ कि अंग-अंग राख हो रहे है ; जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं हैं , वे राख हो गए हैं . ऊपर बढ़ते जाओ ; और अंत में सिर भी विलीन हो जाता है . प्रत्येक चीज राख हो गई है ; धूल-धूल में मिल गई है . तुम शिखर पर खड़े दृष्टा रह जाओगे , साक्षी रह जाओगे . शरीर वहां पड़ा होगा-- मृत , जला हुआ , राख-- और तुम दृष्टा होगे , साक्षी होगे . इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है .
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