विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 94
[ " अपने शरीर , अस्थियों , मांस और रक्त को ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो . " ]
सात दिन तक भाव करते रहो कि मृत्यु पूरे शरीर में हड्डी-मांस-मज्जा तक प्रवेश कर गई है . बिना इस भाव को तोड़े , इसी तरह सोचते चले जाओ . फिर सात दिन के बाद देखो कि तुम कैसा अनुभव करते हो . तुम केवल एक मृत बोझ रह आओगे . सब संवेदनाएं समाप्त हो जायेंगी , शरीर में कोई जीवन अनुभव नहीं होगा . और तुमने किया क्या है ? तुमने खाना भी खाया और तुमने वह सब भी किया जो तुम हमेशा से करते रहे हो , एकमात्र अंतर वह कल्पना ही थी--तुम्हारे चारों ओर कल्पना की एक नयी शैली खड़ी हो गई .
यदि तुम इसमें सफल हो जाओ... और तुम सफल हो जाओगे . असल में तुम इसमें सफल हो ही चुके हो , तुम ऐसा कर ही रहे हो , अनजाने ही तुम इसे करने में निष्णात हो . इसीलिए मैं कहता हूँ कि निराशा से शुरू करो . यदि मैं कहूँ कि आनन्द से भर जाओ तो वह बहुत कठिन हो जाएगा . तुम ऐसा सोच भी नहीं सकते . लेकन यदि निराशा के साथ तुम यह प्रयोग करते हो तो तुम्हें पता लगने लगेगा कि इस तरह यदि निराशा आ सकती है तो सुख क्यों नहीं आ सकता ? यदि तुम अपने चारों ओर एक निराशापूर्ण मंडल तैयार करके एक मृत वस्तु बन सकते हो तो तुम एक जीवन मंडल तैयार करके जीवंत और नृत्यपूर्ण क्यों नहीं हो सकते . दूसरे , तुम्हें इस बात का पता चलेगा कि जो दुःख तुम भोग रह थे वह वास्तविक नहीं था . तुमने उसे पैदा किया था , रचा था ; अनजाने ही तुम उसे पैदा कर रहे थे . इस पर विश्वास करना बड़ा कठिन लगता है कि तुम्हारा दुःख तुम्हारी ही कल्पना है , क्योंकि उससे सारा उत्तरदायित्व तुम पर ही आ जाता है , तब दूसरा कोई उत्तरदायी नहीं रह जाता . और तुम कोई उत्तरदायित्व किसी परमात्मा पर , भाग्य पर , लोगों पर , समाज पर , पत्नी पर या पति पर नहीं फेंक सकते ; किसी अन्य पर उत्तरदायित्व नहीं लाद सकते . तुम ही निर्माता हो , जो कुछ भी तुम्हारे साथ हो रहा है वह तुम्हारा ही निर्माण है . तो सात दिन के लिए सजगता से इसका प्रयोग करो . और मैं कहता हूं , उसके बाद तुम कभी भी दुखी नहीं होओगे , क्योंकि तुम्हें तरकीब का पता लग जाएगा .
फिर सात दिन के लिए आनंद की धारा में होने का प्रयास करो , उसमें बहो , अनुभव करो कि हर सांस तुम्हें आनंद-विभोर कर रही है . सात दिन के लिए दुःख से शुरू करो और फिर सात दिन के लिए उसके विपरीत चले जाओ . और जब तुम बिलकुल विपरीत ध्रुव पर प्रयोग करोगे तो तुम उसे बेहतर अनुभव करोगे , क्योंकि उसमें स्पष्ट अंतर नज़र आएगा . उसके बाद ही तुम यह प्रयोग कर सकते हो , क्योंकि यह सुख से भी गहन है . दुःख परिधि है , सुख मध्य में है और यह अंतिम तत्व है , अंतरतम बिंदु है-- ब्रहमाण्डीय सार .
सात दिन तक भाव करते रहो कि मृत्यु पूरे शरीर में हड्डी-मांस-मज्जा तक प्रवेश कर गई है . बिना इस भाव को तोड़े , इसी तरह सोचते चले जाओ . फिर सात दिन के बाद देखो कि तुम कैसा अनुभव करते हो . तुम केवल एक मृत बोझ रह आओगे . सब संवेदनाएं समाप्त हो जायेंगी , शरीर में कोई जीवन अनुभव नहीं होगा . और तुमने किया क्या है ? तुमने खाना भी खाया और तुमने वह सब भी किया जो तुम हमेशा से करते रहे हो , एकमात्र अंतर वह कल्पना ही थी--तुम्हारे चारों ओर कल्पना की एक नयी शैली खड़ी हो गई .
यदि तुम इसमें सफल हो जाओ... और तुम सफल हो जाओगे . असल में तुम इसमें सफल हो ही चुके हो , तुम ऐसा कर ही रहे हो , अनजाने ही तुम इसे करने में निष्णात हो . इसीलिए मैं कहता हूँ कि निराशा से शुरू करो . यदि मैं कहूँ कि आनन्द से भर जाओ तो वह बहुत कठिन हो जाएगा . तुम ऐसा सोच भी नहीं सकते . लेकन यदि निराशा के साथ तुम यह प्रयोग करते हो तो तुम्हें पता लगने लगेगा कि इस तरह यदि निराशा आ सकती है तो सुख क्यों नहीं आ सकता ? यदि तुम अपने चारों ओर एक निराशापूर्ण मंडल तैयार करके एक मृत वस्तु बन सकते हो तो तुम एक जीवन मंडल तैयार करके जीवंत और नृत्यपूर्ण क्यों नहीं हो सकते . दूसरे , तुम्हें इस बात का पता चलेगा कि जो दुःख तुम भोग रह थे वह वास्तविक नहीं था . तुमने उसे पैदा किया था , रचा था ; अनजाने ही तुम उसे पैदा कर रहे थे . इस पर विश्वास करना बड़ा कठिन लगता है कि तुम्हारा दुःख तुम्हारी ही कल्पना है , क्योंकि उससे सारा उत्तरदायित्व तुम पर ही आ जाता है , तब दूसरा कोई उत्तरदायी नहीं रह जाता . और तुम कोई उत्तरदायित्व किसी परमात्मा पर , भाग्य पर , लोगों पर , समाज पर , पत्नी पर या पति पर नहीं फेंक सकते ; किसी अन्य पर उत्तरदायित्व नहीं लाद सकते . तुम ही निर्माता हो , जो कुछ भी तुम्हारे साथ हो रहा है वह तुम्हारा ही निर्माण है . तो सात दिन के लिए सजगता से इसका प्रयोग करो . और मैं कहता हूं , उसके बाद तुम कभी भी दुखी नहीं होओगे , क्योंकि तुम्हें तरकीब का पता लग जाएगा .
फिर सात दिन के लिए आनंद की धारा में होने का प्रयास करो , उसमें बहो , अनुभव करो कि हर सांस तुम्हें आनंद-विभोर कर रही है . सात दिन के लिए दुःख से शुरू करो और फिर सात दिन के लिए उसके विपरीत चले जाओ . और जब तुम बिलकुल विपरीत ध्रुव पर प्रयोग करोगे तो तुम उसे बेहतर अनुभव करोगे , क्योंकि उसमें स्पष्ट अंतर नज़र आएगा . उसके बाद ही तुम यह प्रयोग कर सकते हो , क्योंकि यह सुख से भी गहन है . दुःख परिधि है , सुख मध्य में है और यह अंतिम तत्व है , अंतरतम बिंदु है-- ब्रहमाण्डीय सार .
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