• Latest Posts

    Osho Hindi Pdf- Bahutere Hain Ghat बहुतेरे हैं घाट

    Osho Hindi Pdf- Bahutere Hain Ghat

    बहुतेरे हैं घाट

    पहला प्रश्नः भगवान, आज आपके संबोधि दिवस उत्सव पर एक नयी प्रवचनमाला प्रारंभ हो रही है: बहुतेरे हैं घाट। भगवान, संत पलटू के इस सूत्र को हमें समझाने की अनुकंपा करें: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट।


    आनंद दिव्या, मनुष्य का मन मनुष्य के भीतर भेद का सूत्र है। जब तक मन है तब तक भेद है। मन एक नहीं, अनेक है। मन के पार गए कि अनेक के पार गए। जैसे ही मन छूटा, विचार छूटे, वैसे ही भेद गया, द्वैत गया, दुई गई, दुविधा गई। फिर जो शेष रह जाता है वह अभिव्यक्ति योग्य भी नहीं है। क्योंकि अभिव्यक्ति भी विचार में करनी होगी। विचार में आते ही फिर खंडित हो जाएगा। मन के पार अखंड का साम्राज्य है। मन के पार 'मैं' नहीं है, 'तू' नहीं है। मन के पार हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है, ईसाई नहीं है। मन के पार अमृत है, भगवत्ता है, सत्य है। और उसका स्वाद एक है। फिर कैसे कोई उस अ-मनी दशा तक पहुंचता है, यह बात और। जितने मन हैं उतने मार्ग हो सकते हैं। क्योंकि जो जहां है वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। और इसलिए हर यात्रा अलग होगी। 

    बुद्ध अपने ढंग से पहुंचेंगे, महावीर अपने ढंग से पहुंचेंगे, जीसस अपने ढंग से, जरथुस्त्र अपने ढंग से। लेकिन यह ढंग, यह शैली, यह रास्ता तो छूट जाएगा मंजिल के आ जाने पर। रास्ते तो वहीं तक हैं जब तक मंजिल नहीं आ गई। सीढ़ियां वहीं तक हैं जब तक मंदिर का द्वार नहीं आ गया। और जैसे ही मंजिल आती है, रास्ता भी मिट जाता है, राहगीर भी मिट जाता है। न पथ है वहां, न पथिक है वहां। जैसे नदी सागर में खो जाए। यूं खोती नहीं, यूं सागर हो जाती है। एक तरफ से खोती है--नदी की भांति खो जाती है। और यह अच्छा है कि नदी की भांति खो जाए। नदी सीमित है, बंधी है, किनारों में आबद्ध है। दूसरी तरफ से नदी सागर हो जाती है। यह बड़ी उपलब्धि है। खोया कुछ भी नहीं; या खोई केवल जंजीरें, खोया केवल कारागृह, खोई सीमा और पाया असीम! दांव पर तो कुछ भी न लगाया और मिल गई सारी संपदा जीवन की, सत्य की; मिल गया सारा साम्राज्य। नदी खोकर सागर हो जाती है। मगर खोकर ही सागर होती है। और हर नदी अलग ढंग से पहंचेगी। गंगा अपने ढंग से और सिंधु अपने ढंग से और ब्रह्मपुत्र अपने ढंग से। लेकिन सब सागर में पहुंच जाती हैं। और सागर का स्वाद एक है। पलटू यही कह रहे हैं: जैसे नदी एक है, बहुतेरे हैं घाट। नदी को पार करना हो तो अलग-अलग घाटों से नदी पार की जा सकती है। अलग-अलग नावों में बैठा जा सकता है। अलग-अलग मांझी हो सकते हैं। अलग होंगी पतवारें। 

    लेकिन उस पार पहुंच कर सब अलगपन मिट जाएगा। फिर कौन पूछता है--' किस नाव से आए? कौन था मांझी? नाव का बनाने वाला कारीगर कौन था? नाव इस लकड़ी की बनी थी या उस लकड़ी की बनी थी?' उस पार पहुंचे कि इस पार का सब भूला। ये घाट, ये नदी, ये पतवार, ये मांझी, ये सब उस पार उतरते ही विस्मृत हो जाते हैं। और उस पार ही चलना है। लेकिन लोग हैं पागल। वे नावों से बंध जाते हैं, घाटों से बंध जाते हैं। और जो घाट से बंध गया वह पार तो कैसे होगा? जिसने घाट से ही मोह बना लिया, जिसने घाट के साथ आसक्ति बना ली, जिसने घाट के साथ अपने नेह को लगा लिया, उसने खूटा गड़ा लिया। अब यह छोड़ेगा नहीं। यह छोड़ नहीं सकता। इससे छुड़ाओगे भी तो यह नाराज होगा कि मेरा घाट मुझसे छुड़ाते हो, मेरा धर्म मुझसे छुड़ाते हो, मेरा शास्त्र मुझसे छुड़ाते हो! जिसे यह शास्त्र समझ रहा है, वही इसकी मौत बन गई। और जिसे यह घाट समझ रहा है, वह अगर पार न ले जाए तो घाट न हुआ, कब्र हो गई।


    No comments