परमात्मा के मेघ - ओशो
परमात्मा के मेघ - ओशो
आषाढ के प्रथम दिवसों में आकाश में मेघ घिरने लगते हैं और मोर पंख फैला देते है और नाचता है। वैसा ही ब्रह्मज्ञानी भी नाचता है, जब उसके जीवन में परमात्मा के मेघ घिर जाते हैं। आषाढ़ का दिन आ जाता है। वर्षा होने के करीब हो जाती है। जन्मों-जन्मों की छाती प्यासी थी। मेघ घिर उठे, आषाढ़ का दिवस आ गया। नाच उठता है मन मयूर। तुमने कोयल को गाते देखा है? पुकारती है प्यारे को, पुकारती रहती है। विरह की वैसी ही अग्नि खोजी को जलाती है, जब तक कि प्रेमी मिल ही न जाए | मिलन पर बड़ी गहन शांति, बड़ा गहन आनंद।
ज्ञानी का अस्तित्व बदलता है। पंडित की केवल स्मृति भरती है। स्मृति तो यंत्र मात्र है। उसका कोई मूल्य नहीं। तुम्हारा पूरा अस्तित्व अहोभाव से भर जाए। तुम्हारा रोआं रोआं धन्यवाद देने लगे। तुम्हारे सब द्वार दरवाजों से उस परमात्मा का प्रकाश भीतर आ जाए। सब तरफ से तुम्हें आपूर परमात्मा घेर ले। आकंठ तुम भर जाओ । बाढ़ आ जाए उसकी, कि तुम समझ ही न पाओ, कैसे धन्यवाद दें। शब्द खो जाएं, बोलने का कुछ न बचे। तुम्हारा पूरा अस्तित्व ही बोलने लगे। वाणी छोटी पड़ जाए । आनंद लक्षण है। सच्चिदानंद लक्षण है। पंडित के दांत खुद ही टूट हुए हैं। और तुम उससे सीख ले रहे हो। आनंद को कसौटी समझो, अन्यथा तुम धोखा खाओगे। शब्दों के धनी बहुत है, आनंद का धनी खोजो। जिसके जीवन में सब शांति और परिपूर्ण हो गया हो। जिसे कुछ पाने को न बचा हो, वही तुम्हें कुछ दे सकेगा। वही गुरु हो सकता है। पंडित तो तुम्हारे ही साथ है। तुमसे थोड़ा ज्यादा जानता है, तुम थोड़ा कम जानते हो। तुम भी थोड़ी मेहनत करो, तो थोड़ा ज्यादा जान लोगे। पंडित में और तुम में कोई गुणात्मक भेद नहीं है। मात्रा का भले हो, गुण का नहीं है। ज्ञानी और तुम में गुणात्मक भेद है।
- ओशो
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