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    समाज तो अंधों की भीड़ है, वह तो मूच्छित लोगों का समूह है -ओशो

    समाज तो अंधों की भीड़ है, वह तो मूच्छित लोगों का समूह है -ओशो


    समाज तो अंधों की भीड़ है, वह तो मूच्छित लोगों का समूह है -ओशो 

    मनुष्य चेतना के दो आयाम है : एक मूर्छा, एक अमूर्छा। मूर्छा का अर्थ है सोये-सोये जीना; विना होश के जीना| अमूर्छा का अर्थ है, होशपूर्वक जीना; जाग्रत, विवेक पूर्ण | मूर्छा का अर्थ है, भीतर का दीया वुझा है। अमूर्छा का अर्थ है, भीतर का दी या जला है। मूर्छा में रोशनी वाहर होती है। बाहर की रोशनी से ही आदमी चलता है। जहां इंस द्रयां ले जाती हैं, वहीं जाता है। इंद्रियों की कामना ही खुद की कामना बन जाती है । क्योंकि खुद का कोई पता ही नहीं| मन जो सुझा देता है, वही जीवन की शैली ह ो जाती है। क्योंकि अपने स्वरूप का तो कोई वोध नहीं। लोग जो समझा देते हैं, स माज जो बता देता है, वहीं आदमी चल पड़ता है क्योंकि न तो अपनी कोई जड़ें हो ती हैं अस्तित्व में, न अपना भान होता है। मैं कौन हूं, इसका कोई पता ही नहीं। तो जीवन ऐसे होता है, जैसे नदी में लकड़ी का टुकड़ा वहता है। जहां लहरें ले जा ती हैं, चला जाता है। जहां धक्के हवा के पहुंचा देते हैं, वहीं पहुंच जाता है। अपना कोई व्यक्तित्व नहीं, निजता नहीं। जीवन एक भटकन है।

            निश्चित ही ऐसी भटकन में कभी जिल नहीं आ सकती। मंजिल तो सुविचारित कद मों से पूरी करनी पड़ती है। भटकाव बहुत हो सकता है यात्रा नहीं हो सकती। यात्रा का अर्थ है कि तुम्हें पता हो तुम कौन हो; कहां हो! कहां जा रहे हो! क्यों जा र हे हो! होशपूर्वक ही यात्रा हो सकती है। होशपूर्वक ही तीर्थयात्रा हो सकती है। इस लए ज्ञानियों ने होश को ही तीर्थ कहा है। अमूछित चित्त, जागा हुआ चित्त विलकुल दूसरे ही ढंग से जीता है। उसके जीवन की व्यवस्था आमूल से भिन्न होती है। वह दूसरों के कारण नहीं चलता, वह अपने कारण चलता है। वह सनता सबकी है। वह मानता भीतर की है। वह गलाम नहीं होता। भीतर की मुक्ति को ही जीवन में उतारता है। कितनी ही अड़चन हो, लेकि न उस मार्ग पर ही यात्रा करता है जो पहुंचायेगा। और कितनी ही सुविधा हो, उस मार्ग पर नहीं जाता, जो कहीं नहीं पहंचायेगा। क्योंकि उस सुविधा का क्या अर्थ? मार्ग कितना ही सुंदर हो, कंटकाकीर्ण न हो, चो र-लुटेरे न हों, मार्ग पर, सव सुरक्षा हो, सुविधा हो लेकिन अगर मार्ग कहीं पहुंचात। ही न हो, तो उस मार्ग की सुविधा और सौंदर्य का क्या करिएगा? मार्ग कंटकाकीण हो, राह लुटेरों से भरी हो, जंगली जानवरों का भय हो, लेकिन कहीं पहुंचाता ह रो, तो जाने योग्य है। 

            अमूच्छित व्यक्ति का जीवन भटकाव नहीं, एक सुनियोजित यात्रा है। लेकिन वह नि योजन कौन देगा? समाज उस नियोजन को नहीं दे सकता। समाज तो अंधों की भी. ड है। वह तो मूच्छित लोगों का समूह है। अगर तुमने समाज की सुनी, तो तुम अंधेरे में ही भटकते रहोगे। भीड़ तो बोधपूर्ण नहीं है। हो भी नहीं सकती। कभी-कभी कोई एकाध व्यक्ति अनेकों में वोध को उपलब्ध होता है। तो भीड़ तो बुद्धों की नहीं अमच्छित व्यक्ति अपने भीतर अपने जीवन की विधि खोजता है। अपने होश में अपने आचरण को खोजता है। अपने अंत:करण के प्रकाश से चलता है। कितना ही थोड़। हो अंत:करण का प्रकाश, सदा पर्याप्त है। इतना थोड़ा हो कि एक ही कदम पड़ता  हो, तो भी काफी है। क्योंकि दुनिया में कोई भी दो कदम तो एक साथ चलता नहीं है,  छोटे से छोटा दीया भी इतना तो दिखा ही देता है, कि एक कदम साफ हो जाए। एक कदम चल लो, फिर और एक कदम दिखाई पड़ जाता है। कदम-कदम करके ह जारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। 

            अमूछित व्यक्ति विद्रोही होता है। अमूछित व्यक्ति एक-एक क्षण, पल-पल एक ही वात को साधता है; और वह बात यह है, कि कुछ भी मुझसे ऐसा न हो जाए, जो मूर्छा को बढ़ाए, मूर्छा कसे ग्रहण करे। ध्यान रखना, एक-एक बूंद पानी की गिरती है, चट्टानें टूट जाती हैं। एक-एक बूंद होश की गिरती है, और तुम्हारी जन्मों-जन मों की चट्टान हो मूर्छा की, निद्रा की टूट जाती है। लेकिन एक-एक बूंद गिरनी चा हिए। तो प्रतिपल अमूछित व्यक्ति की चेष्टा यही होती है, कि हर क्षण का उपयोग एक ही संपदा को पाने में कर लिया जाए। वह यह, कि मेरे भीतर का विवेक प्रगाढ़ हो, जागे।

    -ओशो 

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