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    Osho Hindi Pdf- Kashta Dukh Aur Shanti कशता दुख और शांति

    Osho Hindi Pdf- Kashta Dukh Aur Shanti कशता दुख और शांति

    कशता दुख और शांति

    वैज्ञानिक मानस सोचा करता था कि अव्यक्तिगत ज्ञान की, विषयगत ज्ञान की संभावना है। असल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यही ठीक-ठीक अर्थ हुआ करता था। अव्यक्तिगत ज्ञान' का अर्थ है कि ज्ञाता अर्थात जानने वाला केवल दर्शक बना रह सकता है। जानने की प्रक्रिया में उसका सहभागी होना जरूरी नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यदि वह जानने की प्रक्रिया में सहभागी होता है तो वह सहभागिता ही ज्ञान को अवैज्ञानिक बना देती है। वैज्ञानिक ज्ञाता को मात्र द्रष्टा बने रहना चाहिए, अलग-थलग बने रहना चाहिए, किसी भी तरह उससे जुड़ना नहीं चाहिए जिसे कि वह जानता है। लेकिन अब बात ऐसी नहीं रही। विज्ञान प्रौढ़ हुआ है। 

    इन थोड़े से दशकों में, पिछले तीन-चार दशकों में विज्ञान अपने भ्रमपूर्ण दृष्टिकोण के प्रति सचेत हुआ है। ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो अव्यक्तिगत हो। ज्ञान का स्वभाव ही है व्यक्तिगत होना। और ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो असंबद्ध हो, क्योंकि जानने का अर्थ ही है संबद्ध होना। केवल दर्शक की भांति किसी चीज को जानने की कोई संभावना नहीं है; सहभागिता अनिवार्य है। इसलिए अब सीमाएं उतनी स्पष्ट नहीं रही हैं। पहले कवि कहा करता था कि उसके जानने का ढंग व्यक्तिगत है। जब एक कवि किसी फूल को जानता है तो वह उसे पुराने वैज्ञानिक ढंग से नहीं जानता। वह बाहर-बाहर से ही देखने वाला नहीं होता। किसी गहरे अर्थ में वह वही बन जाता है। वह उतरता जाता है फूल में और फूल को उतरने देता है अपने में, और एक गहन मिलन घटता है। उस मिलन में फूल का स्वरूप जाना जाता है। अब विज्ञान भी कहता है कि जब तुम किसी चीज को ध्यानपूर्वक देखते हो तो तुम सहभागी होते हो-चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो वह सहभागिता, लेकिन फिर भी तुम सहभागी होते हो। 

    कवि कहा करता था कि जब तुम किसी फूल की तरफ देखते हो तो वह फिर वही फूल नहीं रहता जैसा कि वह तब था जब किसी ने उसकी ओर देखा न था, क्योंकि तुम उसमें प्रवेश कर चुके हो, उसका हिस्सा बन चुके हो। तुम्हारी दृष्टि भी अब उसका हिस्सा हो जाती है। पहले वह वैसा न था। जंगल में किसी अज्ञात पगडंडी के किनारे खिला एक फूल, जिसके पास से कोई गुजरा नहीं, वह एक अलग ही फूल होता है; फिर अचानक कोई आ जाता है जो देखता है उसकी तरफ-वह फूल अब वही न रहा। फूल बदल देता है द्रष्टा को, और दृष्टि बदल देती है फूल को। एक नई गुणवत्ता प्रवेश कर गई। लेकिन यह ठीक था कवियों के लिए कोई भी उनसे बहुत तार्किक और वैज्ञानिक होने की आशा नहीं रखता–लेकिन अब तो विज्ञान भी कहता है कि यही प्रयोगशालाओं में घट रहा है : जब तुम निरीक्षण करते हो तो निरीक्षण की वस्तु वही नहीं रह जाती, उसमें देखने वाला शामिल हो जाता है और गुणवत्ता बदल जाती है। 

    अब भौतिकशास्त्री कहते हैं कि जब कोई उन्हें देख नहीं रहा होता तो परमाणु अलग ही ढंग से व्यवहार करते हैं। जैसे ही तुम उन्हें देखते हो, वे तुरंत अपनी गतियां बदल देते हैं। बिलकुल ऐसे ही जैसे कि जब तुम अपने स्नानगृह में होते हो तो तुम एक अलग ही व्यक्ति होते हो; फिर अचानक ही तुम्हें लगता है कि चाबी के छेद से कोई देख रहा है-तत्क्षण तुम बदल जाते हो। परमाणु भी जब अनुभव करता है कि कोई देखने वाला है, तो फिर वह वही नहीं रह जाता; वह अलग ही ढंग से गति करने लगता है। 

    यही थी सीमाएं : विज्ञान को समझा जाता था बिलकुल अव्यक्तिगत; कला थी विज्ञान और धर्म के मध्य में और समझा जाता था कि उसकी आंशिक सहभागिता होती है; और धर्म था समग्र सहभागिता। एक कवि देखता है फूल को, तब ऐसी झलकियां मिलती हैं जब वह भी खो जाता है, फूल भी खो जाता है। लेकिन ये केवल झलकियां ही होती हैं; कुछ क्षणों के लिए मिलन घटता है, और फिर वे अलग हो जाते हैं, फिर वे पृथक हो जाते हैं। जब एक रहस्यदर्शी, एक धार्मिक व्यक्ति फूल को देखता है तब क्या घटता है? तब सहभागिता समग्र होती है, आंशिक नहीं होती। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो जाते हैं; बच रहती है केवल वह ऊर्जा जो दोनों के बीच आंदोलित हो रही होती है। अनुभूति बच रहती है; अनुभव करने वाला नहीं बचता, न ही अनुभव की विषय-वस्तु बचती है। विपरीतताएं खो जाती हैं, विषय और विषयी मिट जाते हैं, सारी सीमाएं खो जाती हैं। धर्म एक समग्र सहभागिता है। कविता या कला या चित्रकला आंशिक सहभागिता है। विज्ञान बिलकुल भी भागीदार न था। अब बात ऐसी नहीं है। विज्ञान को वापस कविता के, धर्म के ज्यादा निकट आना पड़ा है। अब सारी सीमाएं एक-दूसरे में घुल-मिल गई हैं। केवल पचास वर्ष पहले तक वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षित व्यक्ति हंस.............


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