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    हमारा दरिद्र होना स्वाभाविक परिणाम है हमारे विचार का - ओशो

     

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    हमारा दरिद्र होना स्वाभाविक परिणाम है हमारे विचार का - ओशो 

    मैंने सुना है कि दक्षिण अमेरिका में, एक छोटी-सी आदिवासी समाज है। उस आदिवासी समाज में एक-एक आदमी अपने खेत पर काम नहीं करता। छोटे-छोटे खेत हैं और बीच-बीच में पहाड़ियां हैं, खाइयां हैं फिर छोटे खेत हैं। लेकिन उनका तीन-चार हजार वर्ष की संस्कृति यह है कि अपने खेत पर अकेले काम नहीं करना है, सब पास-पड़ोस के मित्रों को बुला कर काम करना है। तो आज एक खेत पर सारा गांव काम करेगा, फिर सारा गांव यात्रा करके जाएगा और दूसरे खेत पर काम करेगा, फिर यात्रा करके जाएगा और तीसरे खेत पर काम करेगा। फिर इतने लोग इकट्ठे होंगे, भीड़भाड़ होगी, बातचीत होगी, नाच गाना होगा, स्वागत समारंभ होगा।

    तो वह तीन हजार साल से एक ही दफे रोटी नहीं जुटा पा रहा है वह समाज । उसके पड़ोस में ही दूसरा समाज है। यह बात फिजूल मालूम पड़ी कि एक खेत से दूसरे खेत की बीच के फासलों को पार करके सारे लोग इकट्ठे होकर वहां जाएं और वहां काम करें। फिर तीसरे खेत पर जाएं। इस तरह शक्ति और श्रम का अपव्यय हो, इससे तो उचित है कि अपने खेत पर ही आदमी पूरा काम करे। बगल में ही एक समाज है दूसरे आदिवासियों का, वह संपन्न होता चला गया है और एक समाज है वह विपन्न होता चला गया। लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आता। अभी भी वह अपनी आदत से बाज नहीं आता ।

    पश्चिम संपन्न होता चला गया, हम विपन्न होते चले गए। लेकिन हमने कभी सोचा नहीं कि हमारी कुछ गलत आदतें हैं जीवन के बाबत। हमने कभी सोचा नहीं कि हमारा दरिद्र होना स्वाभाविक परिणाम है हमारे विचार का । पश्चिम का समृद्ध होना उनका स्वाभाविक परिणाम है उनके विचार का । और आज पश्चिम के सामने हाथ जोड़ कर भीख मांगते हमको शर्म भी नहीं आती कि हम पांच हजार साल की पुरानी संस्कृति है और अमेरिका की सारी संस्कृति कुल तीन सौ वर्ष की है। तीन सौ वर्ष की एक बच्चा संस्कृति के सामने पांच हजार वर्ष की बूढ़ी संस्कृति भीख मांगे और रोज भीख मांगती चली जाए. और शामदा भी ना हो, और मजा यह है शर्मिंदा होना तो दूर उलटा उनको कहे कि वे भौतिकवादी हैं और हम अध्यात्मवादी हैं।

    बेशर्मी की भी सीमाएं होती हैं, वे भी हमने तोड़ दीं। इस देश को एक सुसम्यक, सुसंगत, विस्तारवादी जीवन चिंतन, जीवनवादी जीवन चिंतन, समृद्धि और संपदा को पैदा करने का विचार । स्वावलंबन, चरखा और ग्राम-उद्योग जैसी नासमझी की बातों से मुक्ति का प्रयास। तो हम संपदा पैदा कर सकते हैं । और यह देश, मैंने एक रूसी लेखक की डायरी पड़ रहा था उसमें लिखा तो मैं समझा कि कोई छापेखाने की भूल है। उसने लिखा- कि मैं भारत गया और मुझे ऐसा मालूम पड़ा भारत एक धनी देश है जहां गरीब आदमी रहते हैं। मैं समझा कि कोई छापे खाने की भूल हो गई। ए रिच कंट्री, व्हेयर पुअर पीपल लिव। फिर आगे पढ़ा तो मुझे खयाल आया कि नहीं, भूल नहीं हुई है वह यही कहना चाहता है।

     - ओशो 

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