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    स्वाध्याय और ध्यान का अंतर - ओशो

    Difference-between-self-study-and-meditation-Osho


     स्वाध्याय और ध्यान का अंतर - ओशो 

    स्वाध्याय और ध्यान में क्या अंतर है?

    स्वाध्याय अर्थात स्वयं का अध्ययन। और स्वयं का अध्ययन विचार के बिना संभव नहीं है। इसलिए स्वाध्याय विचार की ही प्रक्रिया है, जबकि ध्यान है विचारातीत। वह है विचारों के प्रति जागना। स्वाध्याय है, सोचना।

    ध्यान है, जागना। सोचने में जागना नहीं है। क्योंकि जागे और सोचना गया। सोच-विचार में होने के लिए निद्रा आवश्यक है। __ सोच-विचार, आंखें खोलकर स्वप्न देखना है। स्वप्न, आदिम सोच-विचार है। स्वप्न चित्रों की भाषा में सोचते हैं। सोचना स्वप्न का सभ्य रूप है। सोचने में चित्रों की जगह शब्द और प्रत्यय ले लेते हैं। लेकिन ध्यान एक अलग ही आयाम है। वह स्वप्न-मात्र से मुक्ति है। वह विचार-मात्र के पार जाना है। स्वप्न अचेतन मन का चिंतन है। विचार चेतन मन का चिंतन है। ध्यान मनातीत है।

    चेतन मन जब अन्य को विषय बनाता है, तो भी वह विचार है, और जब स्वयं को विषय बनाता है, तो भी। ध्यान में विषय से ऊपर उठना है—विषय मात्र से। __इससे कोई मौलिक भेद नहीं पड़ता है कि विषय क्या है। धन है या धर्म? पर है या स्व। मौलिक भेद-रूपांतरण या क्रांति तो तभी घटित होती है, जब चेतना विषय के बाहर हो जाती है। क्योंकि तभी 'स्व' को जाना जा सकता है। जब चेतना के पास जानने को कुछ भी शेष नहीं बचता है, तभी वह स्वयं को जान पाती है। ज्ञेय जब कोई भी नहीं है, तभी आत्मज्ञान होता है। अर्थात स्वाध्याय है स्वयं के संबंध में सोच-विचार, और ध्यान है स्वयं को जानना। और निश्चय ही, जिसे जानते ही नहीं, उसके संबंधों में सोचेंगे-विचारेंगे क्या? और जिसे जान ही लिया, उसके संबंध में सोच-विचार का प्रश्न ही कहां है?

    इसलिए स्वाध्याय से बचें तो अच्छा है। क्योंकि वह भी ध्यान में बाधा है—और सर्वाधिक सबल। क्योंकि वह ध्यान का नाटक बन जाती है। मन तो उससे बहुत प्रसन्न होता है, क्योंकि इस भांति वह पुनः स्वयं को बचा लेता है। लेकिन, साधक भटक जाता है। वह फिर विषय में उलझ जाता है।

    मन है विषय-उन्मुखता। उसे चाहिए विषय। यह विषय फिर चाहे कोई भी हो—काम हो या राम, वह विषय मात्र से राजी है। इसीलिए ध्यान के लिए काम और राम दोनों से ऊपर उठना आवश्यक है। 'पर' और 'स्व' दोनों को सम-भाव से विदा देनी है। तभी वह प्रकट होता है, जो 'स्व' है और जो कि 'पर' भी है। या कि जो न 'स्व' है न ‘पर' है वरन ‘बस है।

    - ओशो 

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