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    लड़ना मत विचार से; जो विचार से लड़ेगा वह हारेगा - ओशो

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    लड़ना मत विचार से; जो विचार से लड़ेगा वह हारेगा - ओशो 


    एक छोटे से सूत्र को ध्यान में रख लें, ये संभव हो जाएगा। आधा घंटे को चुपचाप बैठ जाएं रोज चौबीस घंटे में । और कुछ भी न करें, बस मन को देखते रहें, सिर्फ देखते रहें – जस्ट आब्जर्वेशन, सिर्फ देखते रहें – यह हो रहा है, यह हो रहा है, यह हो रहा है। मन में यह विचार आया, वह विचार आया, आया गया, आया गया। भीड़ लगी है, रास्ता चल रहा है— बस चुपचाप देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें। कुछ भी न करें, माला भी न फेरें, राम-राम भी न जपें, मंत्र भी न दोहराएं, कुछ भी न करें— बस इस मन को देखते रहें के ये विचार चल रहे हैं, ये चल रहे हैं। ये जा रहे हैं, ये आ रहे हैं। रोके भी न किसी विचार को, झगड़े भी न, दबाए भी न, किसी विचार को निकाले भी न, क्योंकि किसी विचार को निकालने गए कि फिर कभी न निकाल पाएंगे। असंभव है वह बात। दबाया किसी को, तो फिर उससे कभी छुटकारा न होगा। वह छाती में दबा हुआ खड़ा ही रहेगा सदा । लड़े किसी से कि हारे ।

    लड़ना ही मत विचार से; जो विचार से लड़ेगा वह हारेगा। क्यों ? इसलिए नहीं कि विचार बहुत मजबूत है और हम बहुत कमजोर हैं। इसलिए कि विचार है ही नहीं; छाया है । और छाया से लड़ने वाला कभी नहीं जीत सकता। आप बड़े से बड़े दैत्य से भी जीत सकते, लेकिन किसी छाया से लड़े फिर न जीत सकेंगे। इसका यह मतलब नहीं कि छाया बहुत मजबूत है। इसका कुल मतलब कि छाया वस्तुतः है ही नहीं। उससे लड़े कि बेवकूफ बने । अपने हाथ से मूढ़ बने, और गए और हारे और मिटे |

    लड़ना मत, जूझना मत, निर्णय मत करना, रोकना मत, चुपचाप बैठ कर देखते रहना मन को । और अगर थोड़ा साहस रखा और भयभीत न हुए और भागे न, और देखते रहे, क्योंकि भय लगेगा, क्योंकि जब मन को देखने बैठेंगे तो पाएंगे, क्या मैं पागल हूं? अगर दस मिनट एकांत में बैठ कर मन में जो चलता हो उसको लिख डालें ईमानदारी से, तो पति अपनी पत्नी को न बता सकेगा, पत्नी अपने पति को न बता सकेगी, मित्र अपने मित्र को न बता सकेगा कि ये मेरे दिमाग में चलता है। और अगर बताया तो घर भर के लोग चौंक कर देखेंगे। वे कहेंगे कि जल्दी अस्पताल ले चलो। ये बातें तुम्हारे दिमाग में चलती हैं? हालांकि जो कहेगा कि तुम पागल मालूम पड़ते हो, वह भी दस मिनट बैठेगा तो यही उसको भी पता चलेगा। और जिस डाक्टर के पास वे ले जा रहे हैं, अगर वह भी दस मिनट बैठेगा तो यही उसको भी पता चलेगा।

    भयभीत न हुए अगर, भागे न डरे न, चुपचाप देखते रहे, मन बिलकुल पागल जैसा मालूम पड़ेगा। पागल में और हममें कोई बुनियादी फर्क नहीं है, सिर्फ डिग्री का फर्क होता है। कोई अनठानबे डिग्री का पागल है, कोई सौ डिग्री का, कोई एक सौ दो की भाप पर निकल गया आगे चला गया है। इसलिए तो देर नहीं लगती है— एक आदमी का दिवाला निकला, तब तक वह ठीक था कल तक, अभी दिवाला निकला वह पागल हो गया। एक आदमी ठीक था, उसकी पत्नी मर गई, वह पागल हो गया। एक आदमी ठीक था, कुछ गड़बड़ हुई, पागल हो गया । डिग्री का फर्क है। एक डिग्री इधर था, उधर एक ताप बढ़ गया, उस तरफ हो गया।

    पागलखाने में जो हैं और पागलखानों के जो भीतर नहीं हैं, उनके बीच दीवाल का ही फालसा है। ज्यादा फासला नहीं है । और कोई भी आदमी फौरन दीवाल के भीतर हो सकता है। हम सब उत्ताप के करीब ही रहते हैं, लेकिन संभाले -संभाले चलते हैं।

    तो जब बैठ कर देखेंगे तो लगेगा एकदम मैडनेस, पागलपन । पर साहस रखना और देखते चले जाना, मत डरना, मत भागना। तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे पागलपन क्षीण हो जाता है। सिर्फ देखने से, कुछ भी न करने से। धीरे-धीरे भीतर एक नई चेतना जगने लगती—देखने वाले की, द्रष्टा की, साक्षी की और विचार खोने लगते हैं। एक दिन आ जाता है, निश्चित आ जाता है, जब विचार धीरे- धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं। सिर्फ हम रह जाते हैं और कोई विचार नहीं रहता। सिर्फ चेतना रह जाती है— एक फ्लेम की तरह, एक ज्योति की तरह । जरा भी कंपती नहीं, जरा भी हिलती नहीं। बस उसी अकंप, अडोल, अचल चेतना में वह दर्पण बन जाता है, जिसमें प्रभु के दर्शन होते हैं।

    परमात्मा करे, इस दिशा में खयाल आ जाए।

     - ओशो 

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