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    ऐसा मन जो दर्पण जैसा बन गया मन है, उसका नाम ध्यान है - ओशो

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    ऐसा मन जो दर्पण जैसा बन गया मन है, उसका नाम ध्यान है - ओशो 


    दर्पण पता है आपको, दर्पण की खूबी क्या है ? दर्पण की खूबी यह है कि उसमें कुछ भी नहीं है, वह बिलकुल खाली है। इसीलिए तो जो भी आता है उसमें दिख जाता है । अगर दर्पण में कुछ हो तो फिर दिखेगा नहीं । दर्पण में कुछ भी नहीं टिकता, दर्पण में कुछ है ही नहीं, दर्पण बिलकुल खाली है। दर्पण का मतलब है : टोटल एंप्टीनेस, बिलकुल खाली। कुछ है नहीं उसमें, जरा भी बाधा नहीं है। अगर जरा भी बाधा हो, तो फिर दूसरी चीज पूरी नहीं दिखाई पड़ेगी। जितना कीमती दर्पण,उतना खाली। जितना सस्ता दर्पण, उतना थोड़ा भरा हुआ। बिलकुल पूरा दर्पण हो, तो उसका मतलब यह है कि वहां कुछ भी नहीं है। सिर्फ केपैसिटी टू रिफ्लेक्ट । कुछ भी नहीं है, सिर्फ क्षमता है एक प्रतिफलन की; जो भी चीज सामने आए वह दिख जाए ।

    क्या मनुष्य का मन ऐसा दर्पण बन सकता है? बन सकता है, और ऐसे दर्पण बने मन का नाम ही ध्यान है, मेडिटेशन है। ऐसा जो दर्पण जैसा बन गया मन है, उसका नाम ध्यान है। ऐसे मन का नाम ध्यान है। ध्यान का मतलब यह नहीं कि राम-राम, राम-राम, राम-राम कर रहे हैं। ध्यान का कोई संबंध नहीं। ये सब लहर चल रही हैं। राम-राम के नाम की चल रही, इससे क्या फर्क पड़ता है ? कि ओम-ओम, ओम-ओम कर रहे हैं, वह भी लहर चल रही है । ओम की चल रही है, इससे क्या फर्क पड़ता है? कोई लहर रह न जाए शब्द की, कोई विचार न रह जाए। कुछ भी न रह जाए, बस खालीपन रह जाए। तो उस खालीपन में हम उसे जान लेंगे जो चारों तरफ मौजूद है।

    भगवान को खोजने कहीं कोई हिमालय पर, कोई एवरेस्ट पर थोड़ी जाना है, न किसी चांद-तारे पर जाना है। वह है यहीं, सब जगह। सच तो यह है कि वही है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसलिए जो पूछता है, कहां खोजने जाऊं, वह पागल है। कोई अगर यह पूछे कि कोई ऐसी जगह बताओ जहां भगवान न हो, तो समझ में आ सकता है कि यह आदमी कुछ खोजने निकला है। लेकिन कोई कहता है, मुझे वह जगह बताओ जहां भगवान है, तो समझना यह आदमी पागल है, क्योंकि ऐसी कोई जगह ही नहीं है जहां वह नहीं है। असल में होना मात्र वही है। जो भी है, वही है। उसके अतिरिक्त कुछ और भी नहीं है।

    ईश्वर का मतलब हैः अस्तित्व, एग्झिस्टेंस, जो है । फिर कमी क्या है ? हम खोज क्यों नहीं पाते उसे ? कमी शायद इतनी ही है कि हम दर्पण नहीं हैं, जिसमें वह झलक जाए। हम भीतर भरे हैं और वह नहीं झलक पाता, हम भीतर तरंगों से भरे हैं और वह नहीं झलक पाता। इसलिए कहीं खोजने न जाएं — सिर्फ चुप बैठें, मौन बैठें और धीरे-धीरे इस दिशा में थोड़ा प्रयोग करें कि कैसे मन के विचार क्षीण होते चले जाएं, क्षीण होते चले जाएं, और एक दिन आ जाए जिस दिन मन कोई विचार न हो। हम हों, वह हो और बीच में कोई विचार न हो। बस उसी क्षण मिलन हो जाता है। और यह भी कठिन नहीं है बहुत। कठिन है, बहुत कठिन नहीं है। कठिन तो है ही, लेकिन बहुत कठिन नहीं है, असंभव नहीं है।

     - ओशो 

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