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    दर्पण - ओशो

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    दर्पण - ओशो 


    एक युवा फकीर सारी दुनिया का चक्कर लगा कर अपने देश वापस लौटा था। उस देश का सम्राट बचपन में उसके साथ एक ही स्कूल में पढ़ा था। वह फकीर सम्राट के पास गया। सारी पृथ्वी से घूम कर लौटा है फकीर, अर्धनग्न, फटे वस्त्र। सम्राट गले मिला है। बैठते ही सम्राट ने पूछा है, सारी दुनिया घूम कर आए, मेरे लिए कुछ लाए हो ? जिनके पास सब कुछ होता है, उनके मन में भी और कुछ की वासना तो बनी ही रहती है। एक सम्राट एक फकीर से मांगने लगा कि मेरे लिए कुछ लाए हो! फकीर ने कहा कि मुझे खयाल था निश्चित ही कि तुम जरूर मिलते ही पहली बात यही पूछोगे। जिसके पास बहुत है, पहली बात उनके मन में यही उठती है। तो मैं तुम्हारे लिए कुछ ले आया हूं।

    सम्राट ने चारों तरफ देखा, फकीर के पास तो कुछ मालूम नहीं पड़ता। हाथ खाली हैं, झोला भी साथ नहीं। सम्राट ने कहा, क्या ले आए हो? फकीर ने कहा, मैंने बहुत खोजा, बहुत खोजा, बड़े-बड़े बाजारों में, बड़ी-बड़ी राजधानियों में, लेकिन मैं यह सोचता था, कोई ऐसी चीज ले चलूं जो तुम्हारे पास न हो। लेकिन जहां भी गया, मुझे खयाल आया, यह सब तुम्हारे पास जरूर होगा। तुम कोई छोटे सम्राट नहीं। और देखता हूं तुम्हारे महल में सभी कुछ है । भूल हो जाती बड़ी । मैं तो कुछ भी नहीं लाया। फिर एक चीज मुझे मिल गई, जो मैं लाया हूं।

    सम्राट तो खड़ा हो गया! उसने कहा, ऐसी कोई चीज लाए हो, जो मेरे पास नहीं है! देखें, जल्दी निकालो, मेरी उत्सुकता को ज्यादा मत बढ़ाओ। उस फकीर ने खीसे में हाथ डाला, फटे कुर्ते से एक छोटा-सा दो पैसे का दर्पण, दो पैसे का मिरर निकाल कर सम्राट को दे दिया। सम्राट ने कहा, पागल हो गए हो, मेरे पास बड़े-बड़े दर्पण हैं। यह तुम दो पैसे का दर्पण लाए हो, तो मेरे पास नहीं होगा? कैसे पागल हो ! उस फकीर ने कहा, यह दर्पण साधारण नहीं है। इसमें अगर देखोगे, तो तुम अपने को ही देख लोगे। दूसरे दर्पण में सिर्फ शरीर दिखा होगा, इसमें तुम ही दिख जाओगे । कागज में लिपटा हुआ है दर्पण, सम्राट ने कहा, मैं इसे खोल कर देखूं ? फकीर ने कहा, अकेले में देखना, क्योंकि उसमें तुम दिख जाओगे जैसे हो, जो है।

    फिर फकीर चला गया। एकांत होते ही सम्राट ने कागज फाड़ा है। एक साधारण-सा दर्पण है, जिसको दर्पण कहना भी मुश्किल है। अत्यंत दीन-दरिद्र दर्पण है। लेकिन उस दर्पण पर एक वचन लिखा हुआ है कि और सब दर्पण व्यर्थ हैं, एक ही दर्पण सार्थक है। वह वही दर्पण है जो तुम बन सकते हो। मौन हो जाओ, चुप हो जाओ, चित्त की सब तरंगें बंद कर दो। उसी दर्पण में देख सकोगे तुम कौन हो ? और जो स्वयं को देख ले, वह सबको देख लेता है। एक बार झलक मिल जाए शांत होकर जीवन की, सब मिल जाता है। लेकिन हम खोजते हैं शास्त्रों में, शास्त्रों में कभी न मिलेगा। हम खोजते हैं गुरुओं के पास, कभी न मिलेगा। कोई किसी को दे सकता नहीं है । है हमारे पास और हम खोजते हैं कहीं और, तो भटकते रहते हैं।

     - ओशो 

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