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    अधार्मिकों के सिवाय मंदिरों में शायद ही कोई कभी जाता है - ओशो

     

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    अधार्मिकों के सिवाय मंदिरों में शायद ही कोई कभी जाता है - ओशो 


    मैंने सुना है, एक गांव में एक फकीर मेहमान हुआ और उस गांव के लोग आए और उस गांव के लोगों ने कहा कि हमारी मस्जिद में चलें और हमें समझाए ईश्वर के संबंध में। उस फकीर ने कहा, मुझे क्षमा कर दो! क्योंकि कितने लोग समझा चुके, कोई समझता ही नहीं है। अब मुझे परेशान मत करो। लेकिन जितना उसने मना किया, जैसी कि लोगों की आदत होती है, जिस चीज के लिए मना करो, वे और आग्रहशील हो जाते हैं। जिस चीज के लिए मना करो, उनका मन और जोर से पकड़ने लगता है कि चलें, देखें, खोजें। इस दरवाजे पर लिख दिया जाए यहां झांकना मना है, और फिर इस गांव में शायद ही ऐसा आदमी मिले जो बिना झांके निकल जाए। लोगों के लिए निषेध निमंत्रण बन जाता है। इनकार करो और उन्हें आमंत्रण हो जाता है।

    वे फकीर के पीछे पड़ गए। फकीर टालने लगा है वे और पीछे पड़ गए। नहीं माने है तो फकीर ने कहा, चलो, मैं चलता हूं। वह उनके गांव की मस्जिद में गया है। वे सब गांव के लोग इकट्ठे हो गए हैं। वह फकीर मंच पर बैठा है और उसने कहा, इसके पहले कि मैं कुछ बोलूं, मैं तुमसे एक बात पूछ लूं, ईश्वर है, तुम मानते हो? जानते हो ईश्वर है ? उन सारे लोगों ने हाथ हिला दिए उन्होंने कहा कि हां ईश्वर है । इसमें शक की बात ही नहीं, संदेह का सवाल ही नहीं, हम सब मानते हैं ईश्वर है।

    उस फकीर ने कहा, फिर मेरे बोलने की कोई जरूरत न रही, क्योंकि ईश्वर आखिरी ज्ञान है। जिसने उसे भी जान लिया, अब उससे बात करनी नासमझी है। मैं जाता हूं। वह नीचे उतर गया। उसने कहा कि जब तुम्हें ईश्वर तक का पता चल चुका है तो अब और मैं तुम्हें क्या बता सकूंगा? बात ही खतम हो गई, यात्रा का ही अंत आ गया, यह तो अंतिम अनुभव ' भी तुम्हें हो गया। और अब तुम्हारे सामने बातें करूं तो मैं अज्ञानी हूं। मुझे क्षमा कर दो!

    मस्जिद के लोग बड़ी मुसीबत में पड़ गए, क्योंकि जानता तो कोई भी नहीं था कि ईश्वर है। झूठे ही हाथ उठा दिए थे। उठाते वक्त खयाल भी न था कि हम झूठे हाथ उठा रहे ।

    अगर बहुत दिन तक झूठे हाथ उठाते रहें तो आदमी खुद ही भूल जाता है कि उठाए गए हाथ झूठे हैं। आप भी जब मंदिर की मूर्ति के सामने सिर झुकाते हैं तो कभी खयाल किया है कि यह हाथ सच में झुक रहा है या झूठा झुकाया जा रहा है? यह सिर्फ आदत है, सिखाई गई बात है या आपने भी कभी जाना है कि इस मूर्ति में कुछ है ?

    और बड़े आश्चर्य की बात है कि जिसे मूर्ति में कुछ दिख जाएगा, उसे सारी दुनिया में कुछ नहीं दिखेगा फिर? वह एक मंदिर को खोजता हुआ सिर झुकाने आएगा? फिर तो जहां भी दिखाई पड़ जाएगा – सब वही है – वहीं सिर झुका लेगा। अधार्मिकों के सिवाय मंदिरों में शायद ही कोई कभी जाता है। धार्मिक तो कभी जाता नहीं देखा गया। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि जो नहीं जाते हैं वे धार्मिक हैं । न जाने से कोई धार्मिक नहीं होता, लेकिन धार्मिक शायद ही मंदिर जाता देखा गया।

    मस्जिद के लोग परेशानी में पड़ गए। लेकिन उन्होंने सोच विचार किया कि इस फकीर से सुनना तो जरूर था, बड़ी गलती हो गई। हमारा उत्तर ही ऐसा था कि आगे बोलने की जरूरत न रही। अब हम दूसरा उत्तर देंगे। फिर एक बार फकीर को किसी तरह बुला कर ले आओ। दूसरे शुक्रवार को फिर उन्होंने प्रार्थना की। उस फकीर ने कहा कि मैं तो गया था पिछली बार, लेकिन तुम तो सब जानते ही हो, अब आगे और क्या बताना है? जो जानता ही है, उसे जानने को शेष क्या रह जाता है ? अब तुम जानते ही हो तो बात ही क्या करनी है ? पर उन लोगों ने कहा कि हम वे लोग नहीं, हम दूसरे लोग हैं।

    फकीर उन्हें भलीभांति जान रहा था कि वे वही हैं। उसने कहा, ठीक है, धार्मिक आदमी का कभी कोई भरोसा नहीं, जरा में बदल जाए। तथाकथित धार्मिक; वे जो सो काल्ड रिलीजस हैं, उनके बदलने का कोई भरोसा भी नहीं। अभी | कुरान पढ़ रहे हैं, अभी छाती में छुरा भोंक देंगे! अभी गीता पढ़ रहे थे, अभी किसी की स्त्री को लेकर भाग जाएंगे ! इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

    धार्मिक आदमी से ज्यादा गैर-भरोसे का आदमी ही पृथ्वी पर अब तक नहीं पाया गया। क्योंकि जिसको हम धार्मिक कहते हैं, सच में वह धार्मिक ही नहीं ही है। थोथा, सूडो रिलीजस, झूठा, सिर्फ माना हुआ धार्मिक है। धर्म का उसके जीवन में कोई संबंध नहीं। अगर धर्म का संबंध हो जाए तो आदमी न हिंदू रहेगा, न मुसलमान, न ईसाई ।

    धर्म भी दस हो सकते हैं? हजार हो सकते हैं? सत्य भी हजार तरह का हो सकता है ?.

    गणित एक तरह की होती है— चाहे तिब्बत में, चाहे चीन में और चाहे हिंदुस्तान में और चाहे रूस में – सब जगह गणित एक है। और केमिस्ट्री भी एक है और फिजिक्स भी एक है – साइंस एक, लेकिन धर्म हजार हैं!

    सिर्फ झूठ हजार तरह के हो सकते हैं, सत्य हजार तरह का नहीं हो सकता । अगर कोई कहते लगे कि हिंदुओं की केमिस्ट्री अलग है और मुसलमानों की केमिस्ट्री अलग है, तो समझ लो कि इन दोनों को पागलखाने में भर्ती करना पड़े। इसके सिवाय कोई उपाय न रहे, क्योंकि केमिस्ट्री कैसे अलग हो सकती है? पानी चाहे हिंदू गरम करे, चाहे मुसलमान, सौ डिग्री पर भाप बनता है। और कोई उपाय नहीं है कि कुरान पढ़ने वाला कम डिग्री पर भाप बना दे और गीता पढ़ने वाला ज्यादा डिग्री पर भाप बना दे। पानी सौ डिग्री पर भाप बनता है, यह सत्य है। यह सत्य सार्वलौकिक है, युनिवर्सल है। धार्मिक आदमी सिर्फ धार्मिक होता है— जस्ट रिलीजस – न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई । ये सब अधार्मिकों की सिरों पर लगे हुए लेबल हैं। धर्म कैसे हो सकते हैं पचास तरह के ? जब पदार्थ का नियम एक है, तो परमात्मा का नियम कैसे अनेक हो सकता है ?

    उस फकीर के फिर वे पीछे पड़ गए, उसने कहा, ठीक है, तुम कहते तो हम चलेंगे। वह गया। वह मंच पर खड़ा हुआ। उस गांव के लोगों ने सोच-विचार करके तय कर लिया कि उत्तर अब दूसरा देना है। फकीर ने पूछा कि मैं पूछ लूं वही बात कि ईश्वर है तुम मानते हो? जानते हो? तुम्हें उसका अनुभव हो गया है? सारे मस्जिद के लोग चिल्लाए, कैसा ईश्वर ? हमें कुछ पता नहीं। न हम मानते हैं, न हम जानते हैं। अब आप बोलिए।

    उस फकीर ने कहा, जिसे तुम मानते ही नहीं, जानते ही नहीं, उसके संबंध में बात करने से फायदा क्या है ? जिसकी तुम्हें कोई खबर ही नहीं, उसका तुम प्रश्न ही कैसे उठाते हो ? किस ईश्वर की बात कर रहे हो ? किस ईश्वर की मैं बात करूं?

    गांव के लोग फिर मुसीबत में पड़ गए कि यह तो बड़ा धोखेबाज आदमी मालूम पड़ता है। पिछली बार हमने हां भरा तो उसने कहा, तुम्हें पता ही हो गया, बात खत्म। अब हम इनकार करते हैं तो वह कहता है, जिसको तुम जानते नहीं, मानते नहीं, जिसका तुम्हें कोई पता नहीं, उसकी बात भी क्यों करनी ? बात करने के लिए भी कुछ शुरुआत तो चाहिए। किसकी मैं बात करूं? किससे मैं बात करूं? मैं जाता हूं ।

    गांव के लोगों ने कहा, यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। यह आदमी कैसा है ? फिर उन्होंने कहा, अब हम क्या करें ? लेकिन इससे सुनना जरूर है। इस आदमी की आंखों से लगता है कि कुछ जानता है। इस आदमी के व्यक्तित्व से लगता है कि इसे कुछ खबर है। शायद हम ठीक उत्तर नहीं दे पा रहे, अब हम क्या करें? उन्होंने तीसरा उत्तर तैयार किया। फिर फकीर को समझा-बुझा कर ले आए। उसने कहा कि तुम क्यों परेशान हो रहे हो ? उन्होंने कहा कि अब हम, दूसरा ही उत्तर है  पास।

    फकीर ने कहा, सोचे-विचारे उत्तर का कोई मतलब नहीं होता पागलो ! तुम सोच-विचार कर तय करते हो, वह सब झूठ होता है। जो सच होता है, उसे सोच-विचार कर तय नहीं करना पड़ता, वह तय होता है । और जिसे हम सोच-विचार कर तय करते हैं, वह कभी सच नहीं होता। सिर्फ असत्य के लिए सोचना पड़ता है, सत्य के लिए सोचना नहीं पड़ता है। और अगर सत्य के लिए भी सोचना पड़े, तो वह असत्य ही होगा । सत्य को जानना पड़ता है, सोचना नहीं पड़ता। असत्य को सोचना पड़ता है। इसलिए असत्य बोलने वाला सोच-विचार में, चिंता में, परेशानी में पड़ जाता है। सत्य बोलने वाले को परेशानी नहीं होती, क्योंकि चिंता का कोई कारण नहीं है । जो है, वह है । जो नहीं है, वह नहीं है।

    फिर भी वे गांव के लोग नहीं माने, उन्होंने कहा, एक बार और चले चलें। बड़ी कृपा होगी। वह गया। वह फकीर फिर मंच पर खड़ा हो गया है। उसने फिर पूछा है कि मित्रो, मैं फिर वही बात पूछ लूं – ईश्वर है तुम मानते हो ? जानते हो ? पहचानते हो? कुछ खबर है उसकी ? तो मस्जिद के लोगों ने तय किया था, अगर हम भी होते, हम भी उस गांव में होते, या हो सकता है हममें से कुछ लोग उस गांव में रहे भी हों। तो हमने भी यही तय किया होता | आधी मस्जिद के लोगों ने कहा कि हां, हम ईश्वर को मानते हैं, आधे लोगों ने कहा, हम नहीं मानते। अब आप बोलिए। 

    है ? तुम उस फकीर ने कहा, तुम बड़े नासमझ हो, जिनको मालूम है, वे उनको बता दें जिनको मालूम नहीं । मेरी क्या जरूरत मेरे पीछे क्यों पड़े हो? तुम मुझे क्यों परेशान करते हो? अब तो कोई जरूरत ही नहीं है मेरी, मैं बिलकुल बेकार हूं यहां। कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते। आपस में एक-दूसरे को समझा-बुझा लें। मैं ये चला। और फकीर ने चलते वक्त उनसे कहा कि हिम्मत हो, तो फिर चौथी बार आना !

    गांव के लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए। बहुत सोचा लेकिन चौथा उत्तर न मिला । करते भी क्या ? करते भी क्या ? एक उत्तर हां का, एक न का, फिर दोनों उत्तर मिला कर दे दिए, हां और न के, अब क्या करते? ये तीन तो विकल्प ही दिखाई पड़ते हैं, कोई चौथा अल्टरनेटिव भी तो नहीं है। बहुत परेशान हुए । फकीर कई दिन रुका रहा और गांव में घूम-घूम कर लोगों से कहता रहा, क्यों अब नहीं आते ? लेकिन गांव के लोग कुछ भी न सोच पाए कि अब क्या करें? आखिर उस फकीर को वह गांव छोड़ देना पड़ा। किसी दूसरे आदमी ने दूसरे गांव में उससे पूछा कि हमने सुना है उस गांव के लोग फिर न आए? अगर वे आते तो तुम समझाते फिर ईश्वर को ? उसने कहा, फिर मुझे समझाना ही पड़ता। उस आदमी ने कहा, जब तुमने तीन बार में क्यों नहीं समझाया ? उसने कहा, मैं ठीक उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा।

    क्या ठीक उत्तर हो सकता है? तो उस फकीर ने कहा, अगर वे गांव के लोग चुप रह जाते और कोई उत्तर न देते, तो ही मैं कुछ बोल सकता था। क्योंकि तब वे ईमानदार होते, आनेस्ट होते। क्योंकि ईश्वर के संबंध में न तो हमें पता है कि वह है, न हमें पता है कि वह नहीं है। हम बेईमान हैं, अगर हम कोई उत्तर दे रहे हैं। लेकिन यह बेईमानी धार्मिक किस्म की है । और जब बेईमानी धार्मिक किस्म की होती है, तो पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता है । अधार्मिक बेईमान आदमी तो पकड़ जाता है। धार्मिक और बेईमान आदमी को पकड़ना बहुत मुश्किल है। क्योंकि उसकी बेईमानी के चारों तरफ धार्मिकता का पर्त चढ़ाई हुई है।

     - ओशो 

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