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    कुछ भी न करने का अंतिम फल समर्पण है - ओशो

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    कुछ भी न करने का अंतिम फल समर्पण है - ओशो
     

    असल में समर्पण का अर्थ ही है कि तू कुछ भी न कर। और जब आप कुछ भी नहीं करते समर्पण हो जाता है। क्योंकि फिर होगा क्या? समर्पण किया नहीं जा सकता, आप कुछ भी न करें समर्पण हो जाता है। कुछ भी न करने का अंतिम फल समर्पण है। और समर्पण भी किया तो चुक गए आप । यह इसको अगर हम ठीक से समझें, तो समर्पण मैं कर रहा हूं, मैं करूंगा, तो गड़बड़ हो गई सब। फिर समर्पण कैसे होगा ? नहीं, समझना यह है कि मैं समर्पित हूं, मैं समर्पित ही रहा हूं। उपाय क्या है? श्वास आपने ली है आज तक ? लेकिन हम रोज यही कहते हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। श्वास सिर्फ आती-जाती है, आपने कभी भी ली नहीं आज तक जिंदगी में, किसी आदमी ने श्वास ली ही नहीं कभी, सिर्फ आती जाती है।

    क्योंकि अगर हम लेते होते, मौत दरवाजे पर आ जाती, हम कहते, थोड़ा ठहरो, अभी श्वास जारी रखते हैं। लेकिन हमें पता है कि मौत द्वार पर आई तो जो श्वास बाहर गई तो बाहर, फिर हम उसे भीतर भी न ला सकेंगे।

    लेकिन जिंदगी भर कहते हम यही हैं कि मैं श्वास ले रहा हूं। बड़ी भूल की बात कहते हैं। सवाल यह है समझने का कि श्वास मैंने कभी ली है? सिर्फ आई गई है, मैं कहां हूं । न मैं जन्मा हूं, न मैं मरूंगा । जन्म भी हुआ है, मृत्यु भी होगी, श्वास भी चली है, विचार भी आए हैं, जीवन भी घटा है, जस्ट हैपेंड, हमने कुछ किया क्या है? यह बोध हमारे खयाल में आ जाए कि मेरे किए बिना सब हुआ है। यह समझ में आ जाए, तो अब मैं क्या करूं? मैं कुछ भी नहीं करता, जो हो रहा है, हो रहा है।

    ऐसी स्थिति में समर्पण हो जाता है, वह आपको करना नहीं पड़ता, वह घट जाता है । और जब वह घटता है तब आप वापस नहीं लौटा सकते, क्योंकि आपने किया होता तो आप वापस लौटा सकते थे। आपने किया ही नहीं घट गया, आप उसे वापस नहीं लौटा सकते।

     - ओशो 

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