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    मन का विसर्जन–साक्षी-भाव से - ओशो

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     मन का विसर्जन–साक्षी-भाव से - ओशो 

    मन के रहते शांति कहां? क्योंकि वस्तुतः मन ही अशांति है। इसलिए शांति की दिशा में मात्र विचार से, अध्ययन से, मनन से कुछ भी न होगा। विपरीत मन और सबल भी हो सकता है; क्योंकि वे सब मन की ही क्रियाएं हैं। हां, थोड़ी देर को विराम जरूर मिल सकता है, जो कि शांति नहीं, बस अशांति का विस्मरण मात्र है। इस विस्मरण की मादकता से सावधान रहना। शांति चाहिए तो मन को खोना पड़ेगा। मन की अनुपस्थिति ही शांति है। साक्षी-भाव, विटनेसिंग से यही होगा। विचार, कर्म–सभी क्रियाओं के साक्षी बनो। कर्ता न रहो। साक्षी बनो। पल-पल साक्षी होकर जीयो। जो भी करो साक्षी रहो। जैसे कि कोई और कर रहा है और मात्र गवाह रहा हो। फिर धीरे-धीरे मन भोजन न पाने से निर्बल होता जाता है। कर्ता भाव मन का भोजन है। अहंकार मन का इधन, फ्यूल है। और जिस दिन इधन बिलकुल नहीं मिलता है, उसी दिन मन ऐसे तिरोहित हो जाता है कि जैसे कभी रहा ही न हो।

    - ओशो 

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