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    Osho Hindi Pdf- Mahavir Vani Vol-2 महावीर वाणी भाग-२

    Osho Hindi Pdf- Mahavir Vani Vol-2


    महावीर वाणी भाग-२

    अप्रमाद-सूत्र : 1 
    सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिए आसुपन्ने। 
    घोरा मुहुत्ता अवलं शरीरं, भारुडपक्खी व चरप्पमत्ते।।

    आशुप्रज्ञ पंडित पुरुष को मोह-निद्रा में सोये हुए संसारी मनुष्यों के बीच रहकर भी सब तरह से जागरूक रहना चाहिएऔर किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए। काल निर्दयी है और शरीर दुर्बल, यह जानकर भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-भाव से विचरना चाहिए।

    पहले कुछ प्रश्न।

    एक मित्र ने पूछा है, मनुष्य जीवन है दुर्लभ, लेकिन हम आदमियों को उस दुर्लभता का बोध क्यों नहीं होता? श्रवण करने की कला क्या है? कलियुग, सतयुग मनोस्थितियों के नाम हैं? क्या बुद्धत्व को भी हम एक मनोस्थिति ही समझें?
    जो मिला हुआ है, उसका बोध नहीं होता। जो नहीं मिला है, उसकी वासना होती है, इसलिए बोध होता है।
    दांत आपका एक ट्ट जाये, तो ही पता चलता है कि था। फिर जीभ चौबीस घंटे वहीं-वहीं जाती है। दांत था तो कभी नहीं गयी थी; अब नहीं है, खाली जगह है तो जाती है।

    जिसका अभाव हो जाता है, उसका हमें पता चलता है। जिसकी मौजदगी होती है, उसका हमें पता नहीं चलता। मौजूदगी के हम आदी हो जाते हैं।

    हृदय धड़कता है, पता नहीं चलता, श्वास चलती है, पता नहीं चलता। श्वास में कोई अड़चन आ जाये तो पता चलता है, हृदय रुग्ण हो जाये तो पता चलता है। हमें पता ही उस बात का चलता है जहां कोई वेदना, कोई दुख, कोई अभाव पैदा हो जाये। मनुष्यत्व का भी पता चलता है, हम आदमी थे, इसका भी पता चलता है जब आदमियत खो जाती है हमारी, मौत छीन लेती है हमसे। जब अवसर खो जाता है, तब हमें पता चलता है।

    इसलिए मौत की पीड़ा वस्तुतः मौत की पीड़ा नहीं है, बल्कि जो अवसर खो गया, उसकी पीड़ा है। अगर हम मरे आदमी से पूछ सकें कि अब तेरी पीड़ा क्या है तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं मर गया, यह मेरी पीड़ा है। वह कहेगा, जीवन मेरे पास था और यों ही खो गया, यह मेरी पीड़ा है।

    हमें पता ही तब चलता है जीवन का, जब मौत आ जाती है। इस विरोधाभास को ठीक से समझ लें।

    आप किसी को प्रेम करते हैं। उसका आपको पता ही नहीं चलता, जब तक कि वह खो न जाये। आपके पास हाथ है, उसका पता नहीं चलता, कल टूट जाये तो पता चलता है। जो मौजूद है, हम उसके प्रति विस्मृत हो जाते हैं। खो जाये, न हो, तो हमें याद आती है। यही कारण है कि हम आदमी की तरह पैदा होते हैं तो हमें पता नहीं चलता कि कितना बड़ा अवसर हमारे हाथ में है। मछलियों को, कहते हैं, सागर का पता नहीं चलता। मछली को सागर के बाहर डाल दें रेत पर, तड़फे, तब उसे पता चलता है। जहां वह थी वह सागर था, जीवन था; जहां अब वह है, वहां मौत है।

    जिस मछली को सागर में पता चल जाये, वह संतत्व को उपलब्ध हो गयी कि सागर है। जिस आदमी को आदमियत खोये बिना, अवसर खोये बिना, पता चल जाये, उसके जीवन में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है। महावीर हैं, बुद्ध हैं, कृष्ण हैं-उनकी सारी चेष्टा यही है कि हमें पता चल जाये तभी, जबकि अवसर शेष है। तो शायद हम अवसर का उपयोग कर लें। तो शायद अवसर को हम स्वर्णिम बना लें। शायद अवसर हमारे जीवन को और वृहत्तर परम जीवन में ले जाने का मार्ग बन जाये। अगर पता भी उस दिन चला जब हाथ से सब छूट चुकता है तो उस पता चलने की कोई सार्थकता नहीं है, मगर यह मन का नियम है, मन को अभाव का पता चलता..............


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