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    Osho Hindi Pdf- Na Kano Suna Na Ankhon Dekha ना कानों सुना ना आंखों देखा

    Na Kano Suna Na Ankhon Dekha


    ना कानों सुना ना आंखों देखा

    भूमिका
    सागर से मिला आकाश
    बिन पद निरत करों, बिन पद दै दै ताल बिन नयननि छबि देखणा, श्रवण बिना झनकारि।


    पूर्ण साक्षात्कार रहस्यवादी भावना का चरत्माकर्ष कहना उचित है। समस्त विकारों से रहित, लौकिक आकर्षणों से विरत, भावों के द्वंद्वात्मक संघर्षों से प्रथक साधक की आत्मानुभूति की ही अभिव्यंजना होती है उसकी अनबोली वाणी में। जिसमें सब कुछ भूलकर वह पूर्ण आत्मविस्मृत हो जाता है। नवमुकुलित-सुमन वैज्ञानिक दृष्टि से विशेष क्रम में लगी हुई पंखुरियों और पराग का संग्रह मात्र है। सुमन के सौरभ और सौंदर्य से हृदय को प्राप्त होने वाले आनंद का बोध वैज्ञानिक को नहीं होता। इसके विपरीत कलाकार को पुष्प में सौंदर्य से हृदय प्राप्त होने वाले आनंद का बोध वैज्ञानिक को नहीं होता। इसके विपरीत कलाकार को पुष्प में सौंदर्य का ज्ञान नहीं होता, बल्कि अनुभूति होती है। यह अनुभूति उसे अपरोक्ष रूप से होती है। कलाकार से भी अतल गहराई लिए हुए तत्ववेत्ताओं की चेतना को उस परम चेतना की अनुभूति होती है। इस अभौतिक ज्ञान, साधन अनुभूति द्वारा आत्मा एवं अस्तित्व की प्रत्यक्ष अनुभूति सभी मानवप्राणियों के लिए भी उपलब्ध है-“बिइ नयननि छबि देखणा, श्रवण बिना झनकारि"। केवल प्रत्येक साधक में इस अनुभूति की प्राप्ति के लिए संतों जैसी सरलता एवं सागर जैसी गहराई होनी चाहिए।

        सागर की अतल गहराई से उठी हुई तरंग समुद्र की सतह से ऊपर उठ जाती है, उसके तटों की सीमाओं का भी उल्लंघन कर जाती है, किंतु आवास उसका समंदर ही है। अपने जन्म, अपनी स्थिति तथा अपने लय के लिए उसे सागर की ही आवश्यकता रहती है। इसी तरह मानवीय संचेतनात्मक सृजन अपनी असाधारणता में भी रहता जीवन का ही है। पूर्णतम निर्मित भी, जीवन के अनंत विस्तार में अपरिचित ही रह जाती है। विश्व की समस्त रूपात्मक तथा जैवी निवृत्ति अणु-परमाणुओं के विशेष संगठन का परिणाम है। मानव एक विशेष भौतिक परिवेश में भी विकास पाता है। विशेष विकास क्रम में उसकी क्रियाशीलता इतनी जटिल और रहस्यमयी रही है कि एक-एक सहज प्रवृत्ति का सहस्त्र-सहस्त्र अर्जित प्रवृत्तियों में हो गया है। और अब एक को दूसरे से भिन्न करना भी असंभव सा है। जैसे एक वटवृक्ष की शाखाएं आकाश की ओर उन्मुख होती हैं तथा जटाएं धरित्री के अंतराल में उतरती हैं, वैसे ही संपूर्ण अस्तित्व मूलतः एक होकर भी सर्वथा विपरीत दिशाओं में प्रसारित सा प्रतीत होता है।

        सहस्त्रदल कमल के धीरे-धीरे खुलने वाले सम्पुट के समान ही परम अस्तत्व का सत्य धीरे-धीरे पंखुरित होता है। यह खुलने का क्रम सुंदर तथा उसकी अनुभूति शिव है। शून्य की नौका में बैठकर कभी-कभी समग्र अस्तित्व के सागर को भी अपनी यात्रा करनी पड़ती है। अस्तित्व का यह विशाल सागर शून्य की नौका में ही बैठा है। यह बात सांसारिक लोक में न आज तक किसी ने आंखों से देखी है और न ही किसी ने कानों से सुनी है। किंतु सहस्त्रदल कमल में बैठी मधुमक्षिका ही केवल मधु को पहचान पाती है। पंखरियों के रस का लोभी भ्रमर केवल सौरभ में सन जाने में जीवन का उद्देश्य मान लेता है। मानव की आस्था की कसौटी काल का क्षण मात्र नहीं बन सकता। क्योंकि वह तो काल पर मनुष्य का स्वनिर्मित सीमावरण है। वस्तुतः साधक की कसौटी क्षणों की अटूट संतृप्ति से निर्मित काल का अजस्त्र प्रवाह ही रहेगा। यह तो शून्य से निर्मित सफीना है जिसमें बैठ कर समंदर को भी सफर करना पड़ता है।

    रजत किरणों से नयन पखार 
    अनोखा ले सौरभ का भार 
    छलकता लेकर मधु का कोष 
    चले आए एकाकी पार।
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