कहे कबीर दिवाना - ओशो
कहे कबीर दिवाना - ओशो
यह कहानी बड़ी प्राचीन है, और बड़ी नई भी पुरानी से पुरानी, नई से नई यह अ तीत में भी होती रही है, और आज भी हो रही है; भविष्य में भी होती रहेगी यह चिर नूतन और चिर पुरातन कथा है यूनान के बहुत बड़े मनीषी अफलातून ने इस कथा का एक अंश अपने किताबों में उल्लेख किया है लेकिन यह कथा अफलातुन से भी पुरानी है। यह उतनी ही पुरानी है जितना आदमी पुराना है और यह तब त क रहेगी, जब तक एक भी आदमी जमीन पर बंधा हुआ है।
अब हम कबीर के इस सुत्र को समझने की कोशिश करें। तब तुम समझ पाओगे क्यों कबीर कहता है, कहे कबीर दिवाना! नहीं तो तुम न स मझ पाओगे, क्यों कवीर अपने को खुद पागल कहता है? कैसी बेबझ दुनिया है! प्रज्ञ वान पागल समझे जाते है, मुढ़ ज्ञानी जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, जिन्होंने शब्दों का कचरा इकट्ठा कर लिया है या खोपड़ी से शास्त्र भर लिए हैं, वे ज्ञानी हैं, वे पं डत है कबीर काशी में रहे जीवन भर पंडितों की दुनिया ! स्वभावत: उन सभी पंडितों ने कहा होगा पागल है काशी...! वहां तो सबसे ज्यादा बड़े अंधों की भीड़ है। वहां तो सब तरह के मढ़ प्रतिष्ठित हैं, जिनके पास शब्दों का जाल है वेद, उपनिषद है, ग ता, पुराण है। जिन्हें गीता पुराण, वेद, उपनिषद कंठस्थ है। शब्दों के अतिरिक्त जिन होंने कुछ भी नहीं जाना दीवालों पर बनी छायाओं को जिन्होंने इकट्ठा किया है-बड़ मेहनत से, बड़े श्रम से, बड़ी कुशलता से वे बड़े निष्णात है तर्क में क्योंकि शब्द तो छाया हे सत्य की और तर्क तो सिर्फ सांत्वना है।
इसलिए कबीर अपने को खुद कहते है : कहे कबीर दिवाना एक एक शब्द को सुनने की, समझने की कोशिश करो क्योंकि कबीर जैसे दीवाने मु श्किल से कभी होते हैं उंगलियों पर गिने जा सकते हैं और उनकी दीवानगी ऐसी है, कि तम अपना अहोभाग्य समझना अगर उनकी सुराही की शराब से एक बंद भ तुम्हारे कंठ में उतर जाए अगर उनका पागलपन तुम्हें थोड़ा सा भी छू ले तो तु म स्वस्थ हो जाओगे उनका पागलपन थोड़ा सा भी तुम्हें पकड़ लें, तुम कभी कबीर जैसा नाच उठो और गा उठो, तो उससे बड़ा कोई धन्यभाग नहीं वही परम सौभा ग्य है सौभाग्यशालियों को ही उपलब्ध होता है।
- ओशो
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