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    मायाजगत - ओशो

    मायाजगत - ओशो


    मायाजगत - ओशो 

    छाया के इस जगत को ही हिंदूओं ने माया कहा है। असली तो दिखाई नहीं पड़ता, असली का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। असली को देखने के लिए आंख चाहिए समर्थ आंख, जो प्रकाश में खुल सके। जो सूरज के सामने-सामने हो सके। अंधेरे की आदी आंख सत्य को नहीं देख सकती। सत्य ढंका हुआ नहीं है। सत्य तो प्रकट है, उघड़ा हुआ है। तुम्हारी आंख कमजोर है और सत्य को न देख पाएगी। 

            धीरे-धीरे उन्होंने पीछे लौट कर देखना ही बंद कर दिया। पीछे लौट कर देखने का मतलव यह था, आंख में आंसू आ जाएं। वह पीड़ा का जगत था। तुमने भी सत्य को देखना बंद कर दिया है। और जब भी कोई तुम्हें सत्य दिखा देत । है तो पीड़ा होती है। आनंद जन्मता नहीं, कष्ट होता है। जब भी कहीं कोई सत्य कह देता है तो कष्ट ही होता है। लेकिन एक आदमी ने हिम्मत की। क्योंकि उसे शक होने लगा। ये छायाएं छायाएं न ही हैं। क्योंकि इनसे बोलो तो ये उत्तर नहीं देती। इन्हें छूओ, तो कुछ भी हाथ नहीं आता। इन्हीं पकड़ो तो कुछ पकड़ में नहीं आता। 

            एक आदमी को शक होने लगा। कोई मनीषी, कोई वुद्ध ! उस आदमी ने धीरे-धीरे पीछे देखने का अभ्यास शुरू किया। वर्षों लग गए। बड़ा कष् ट हुआ। जब भी पीछे देखता, आंखें तिलमिला जातीं। आंसू गिरते। लेकिन उसने अभ यास जारी रखा। वह बड़ी तपश्चर्या थी। फिर धीरे धीरे आंखें राजी होने लगीं। और तब वह चकित हुआ, कि हम किसी कारागृह में पड़े हैं, और हमने छायाओं क । सत्य समझ लिया है। वह पीछे देखने में समर्थ हो गया। उसकी गर्दन मुड़ने लगी। और उसकी आंखें देखने लगीं बाहर के रंग, वृक्ष और वृक्षों में खिले फूल, राह से गु जरते लोग। रंगीन थी दुनिया काफी। छायाएं बिलकुल रंगहीन थीं, उदास थीं। बाहर उत्सव था। छायाओं में कोई उत्सव पकड़ में नहीं आता था। बच्चे नाचते गाते नि कलते थे। छायाएं तो विलकुल चुप थीं। वह वाणी न थी, वहां मुखरता न थी-वाहर | पीछे छुपा हुआ असली जगत था। 

            उस आदमी ने धीरे धीरे इसकी चर्चा दूसरे कैदियों से शुरू की। बाकी कैदी हंसने ल गे, कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। हम तो सदा से यही सुनते आए हैं कि य ही सत्य है, जो सामने है। और हम तो पीछे मुड़ कर देखते हैं तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता, सिवाय अंधकार के। जब आंख बंद हो जाए तो सिवाय अंधकार के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। जरूरी नहीं है कि अंधकार हो। हो सकता है, सिर्फ आंख बंद हो जाती हो। लेकिन दोष कोई अपने ऊपर कभी लेता नहीं। तो कोई यह तो मानता नहीं कि मेरी आंख बंद हो सकती है, इसलिए अंधकार है। लोग मानते हैं, अंधकार है, इसलिए अंधकार है। मेरी आंख और बंद हो सकती है? यह कभी संभव है? हम अपनी आंख तो स दा खुली मानते हैं। अपना हृदय तो सदा प्रेम से भरपूर मानते हैं। अपनी प्रज्ञा तो स दा प्रज्वलित मानते हैं। अपनी आत्मा तो सदा जाग्रत मानते हैं। और वही हमारी भ्र तियों की जड़ है। फिर कैदियों की संख्या बहुत थी, वह अकेला था। लोकतंत्र कैदियों के पक्ष में था । बहुमत उनका था। और उन्होंने कहा कि अगर ऐसा ही है तो सबकी सलाह ले ली जाए। एक भी मत मिला नहीं उस आदमी को। और लोग हंसे, खूब मजाक की उन्ह ने। धीरे धीरे उस आदमी को पागल मानने लगे।

    - ओशो 

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