समाधि तुम्हारा स्वभाव है - ओशो
समाधि तुम्हारा स्वभाव है - ओशो
सिर्फ स्मरण! थोड़ी श्रद्धा करो। और जो समाधि के स गर में तुम्हें बुला रहा हो, उसके पास जाओ। छोड़ो संदेह , बहुत दिन तक किनारे और संदेह से बंध रहे। उतरो पानी में। उतरते ही श्रद्धा वढेगी। लेकिन उतरने के प हले भी श्रद्धा चाहिए। फिर श्रद्धा प्रगाढ़ होगी। मजबूत होगी। एक घड़ी आती है, तु म हंसोगे। तुम हंसोगे और तुम कहोगे यह तो विना गुरु के भी हो सकता था।
मेरे गांव में जो व्यक्ति लोगों तो तैरना सिखाते थे, वे कुछ खुद भी बड़े तैराक न थे । उन्होंने ही मुझे भी तैरना सिखाया था। और उनकी कला कूल इतनी थी कि उठाकर बच्चे को फेंक देते थे पानी में। उन्होंने मुझे भी फेंक दिया था। लेकिन वे किना रे पर खड़े हैं, इसलिए कोई डर न था। हाथ पैर फड़फड़ा कर मैं वापिस आ गया। उन्होंने दुवारा फेका, आस्था बढ़ती गई। व कभी पानी में उतरे नहीं, कभी उन्होंने मु झे हाथ पकड़ कर सिखाया नहीं। सिर्फ किनारे से मुझे पानी में फेंका। लेकिन घबराह ट में डुवकी खाने में आदमी भागता है वापस किनारे की तरफ। पर वे खड़े हैं। जरूरत होगी, तो वचा लेंगे। वे खड़े हैं इसलिए कोई चिंता नहीं। उन होंने सैकड़ों बच्चों को तैरना सिखायें। वहुत छोटे-छोटे बच्चों को तैरना सिखाया। औ र कभी वे नीचे उतर कर किसी को सिखाने नहीं गए। वे किनारे पर बैठे रहते। अपना कपड़ा धोते रहते, या मालिश करते रहते शरीर की, और उठा कर बच्चे को । फेंक देते और देखते रहते, कि वच्चा आ रहा है। वस इतना भरोसा, कि कोई वचाने को मौजूद है, काफी है।
श्रद्धा भीतर जन्म जाए, तो गुरु की कृपा तो सदा मौजूद है। कृपा और श्रद्धा का ि मलन हो जाए, तो क्रांति की चिनगारी पैदा हो जाती है। असंभव क्रांति भी घटती है। इसलिए मैं असंभव कहता हूं तो यह मत समझना, कि संभव नहीं है। असंभव क हता हूं सिर्फ इसलिए, अति दूभर है, अति कठिन है। करीव-करीव असंभव है। घटत । तो है, असंभव भी घटता है। असंभव भी संभव है।
- ओशो
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