श्रद्धा बड़ी भारी घटना है- ओशो
श्रद्धा बड़ी भारी घटना है- ओशो
श्रद्धा बड़ी भारी घटना है। बड़ी कठिन है। करीब करीब असंभव। इसलिए मैं धर्म क । असंभव क्रांति कहता हूं। बड़ी मुश्किल से घटती है। क्योंकि इसका मौलिक आधार ही असंभव जैसा मालूम पड़ता है। संदेह तो मन के लिए स्वाभाविक है। श्रद्धा मन के लिए बिलकुल अस्वाभा
विक मालूम होती है। संदेह तो सुरक्षा मालूम पड़ता है। श्र द्धा में खतरा मालूम पड़ता है, कि पता नहीं!...और पता तो है नहीं। जिसके साथ जा रहे हैं, वह कहीं ले जाएगा कि भटका होगा जिसका हाथ पकड़ा है, वह हाथ प कड़ने योग्य भी है या नहीं, इसका भरोसा कैसे आए? अनुभव के बिना भरोसा नहीं __ हो सकता। और धर्म कहता है, श्रद्धा के बिना अनुभव नहीं हो सकता।
बड़ी असंभ व बात मालूम पड़ती है : कैसे करें श्रद्धा ? और सारा जीवन संदेह का शिक्षण है। जीवन भर हम संदेह सिखाते हैं। क्योंकि संसा र में श्रद्धा अगर करोगे तो लूट जाओगे। यहां तो संदेह ही आत्मरक्षा है। यहां तो ह र वक्त अपने जेब को पकड़ रहना है। अपनी तिजोड़ी पर ताला डालना है। द्वार पर ताला लगाना है। यहां तो हर आदमी पर संदेह रखना है, कि चोर है। यहां तो हर आदमी को मान कर चलना है, कि दृश्मन है, प्रतिस्पर्धा है, प्रतियोगी है। यहां तो किसी को मित्र नहीं मानना। इस जीवन का तो पूरा शास्त्र ही मैक्वेवली और चाणक य का है। मैक्येवली ने लिखा है, अपने मित्र का भी इतना भरोसा कभी मत करना, कि उससे सभी बातें कह दो। मित्र से भी इसी तरह बात करना, जैसे वह कभी हो जानेवाला दृश्मन है। कभी भी मित्र दुश्मन हो सकता है। फिर पछताना पड़ेगा। तो मैक्येवली कहता है, कि मित्र से भी ऐसी ही बातें करना, जो तुम अपने दुश्मन से भी कह सकते हो। क्योंकि कल यह दृश्मन हो सकता है। और दुश्मन के भी खिलाफ ऐसी बातें मत कहना, जो तुम अपने मित्र के खिलाफ न कह सको। क्योंकि कौन जाने, कल दृश्मन मित्र हो जाए। फिर पछतावा होगा।
- ओशो
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