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    हिरदै कंवल विगासा - ओशो

    हिरदै कंवल विगासा - ओशो


    हिरदै कंवल विगासा - ओशो 

            बुद्ध ने कहा है, मुझे लोग जब सुनने आते हैं तो मैं जानता हूं कि उसमें कुछ तो ऐसे हैं, जो उल्टे घड़े की तरह हैं। उन पर कितना ही डालो, उनके भीतर कुछ पहुंच ही नहीं सकता। क्योंकि उनका मुंह ही जमीन पर टिका है। कुछ हैं, जो फूटे घड़े की तरह हैं। मुंह उनका चाहे सीधा भी हो, डालो, छू भी नहीं पाता कि बाहर निकल जाता है।

            कछ हैं. जो डांवाडोल घडे की तरह हैं कंपित, चंचल। कुछ पड़ता है, कुछ गिर जा ता है, कुछ वचता है। पूरा कभी नहीं बच पाता। कुछ जो सधे हुए, सीधे घड़े की तरह हैं। न तो फूटे हैं, न उल्टे हैं, न चंचल हैं। उ नमें जितना डालो, उतना तो सुरक्षित होता ही है, लेकिन उनके सधे होने के कारण वह बढ़ता है। बीज डालो, अंकुर हो जाता है। जितना डालो, उतना ही नहीं रहता , वह बढ़ता है। घटता तो है ही नहीं; विकासमान होता है। 

            कबीर कहते हैं, हिरदै कंवल विगासा। हृदय का कमल खिल गया। जब कृपावान गू रु ने कृपा की। गुरु तो कृपावान है। वह तो सदा कृपा कर ही रहा है। लेकिन जब एक शिष्य राजी न हो जाए, तब तक उससे कृपा का संबंध न जुड़ेगा। कृपा बरसती रहेगी, चांद उगा रहेगा, तुम आंख बंद किए बैठे रहोगे। गुरु की कृपा को पाने के लिए क्या तैयारी करनी होगी? उसको ही समस्त धर्मों ने श्रद्धा कहा है। शिष्य की श्रद्धा और गुरु की कृपा इनका मिलन होता है। जब शिष्य की श्रद्धा पूरी होती है, तब गुरु की कृपा पूरी हो जाती है। एक तरफ श्रद्धा चाहि ए, दूसरी तरफ कृपा, तब कहीं हृदय का कमल खिलता है।

    - ओशो 

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