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    कबीर -गुरु कृपाल जब किन्हीं- ओशो

    कबीर-गुरु कृपाल जब किन्हीं- ओशो


    कबीर-गुरु कृपाल जब किन्हीं- ओशो 

            गुरु से अर्थ है, जो जाग गया। जो जाग गया, वह तुम्हारे और परमात्मा के बीच क, डी बन सकता है। इसे थोड़ा समझो। गुरु एक द्वार है: द्वार से ज्यादा कुछ भी नहीं। उस द्वार के एक तरफ तम हो और दूसरी तरफ परमात्मा है। तुम परमात्मा को समझने में असमर्थ हो। क्योंकि वह भाप T बिलकुल अपरिचित। वह रूप अनचीन्हा। वह राग अनसुना। तुम्हारे कान अ संगी त के लिए तैयार नहीं है। तुम्हारा हृदय स स्पर्श के लिए तैयार नहीं। तुम्हारी भी म घास-पात से भरी है। वे बीज तुममें गिर भी जाएं, तो भी अंकुरित न हो पाएंगे। फिर तुम द्वार की तरफ पीठ किए खड़े हो। परमात्मा की तरफ तुम ज्मुख नहीं हो . परमात्मा से विमुख हो। 

            संसार की तरफ जितनी उन्मूखता होगी, उतनी परमात्मा की तरफ विमुखता होगी, पीठ होगी। तुम मुंह तो एक ही तरफ कर सकते हो-या तो संसार की तरफ या परमात्मा की तरफ। संन्यासी का इतना ही अर्थ है, जिसने संसार की तरफ पीठ कर ली और मुंह परमार मा की तरफ कर लिया। गृहस्थ का अर्थ है, जिसने पीठ परमात्मा की तरफ की जी र मुंह संसार की तरफ किया। बस, उनके खड़े होने के ढंग का जरा सा फर्क है। ए क जहां पीठ किए है, दूसरा वहां मुंह किए है। बस, इतना ही फर्क है। जरा सा मूड ना, एक सौ अस्मी डिग्री धूम जाना-और गृहस्थ संन्यासी हो जाता है। एक क्षण में! संन्यासी गृहस्थ हो सकता है। मुंह कहां है? प्रभु-उन्मुखता, संन्यास है। लेकिन तुम्हारी पीठ द्वार की तरफ...और उ स द्वार के पार जो अनंत फैला हुआ है. वह तुम्हारी परिभाषाओं में नहीं आता है। तुमने जो भी जाना है, उससे उसका कोई मेल नहीं है। तुम्हारा सब जानना व्यर्थ है।

            गुरु का अर्थ है, जो कभी तुम जैसा था। पीठ किए खड़ा था द्वार की तरफ। फिर उसने द्वार की तरफ मुंह किया। गुरु का अर्थ है, जो तुम्हारी भाषा भलीभांति समझता है। जो तुम्हारे बीच से ही पा या है। जिसका अतीत तुम्हारे जैसा ही था। लेकिन जिसका वर्तमान भिन्न हो गया है | जिसके जीवन में परमात्मा की थोड़ी किरण उतर गई है। वह परमात्मा की भाषा को भी थोड़ा समझा है। वह अनुवाद का काम कर सकता है। गुरु एक अनुवादक है, एक ट्रांसलेटर| वह परमात्मा को समझता है, उसकी भाषा क है। वह तुम्हें समझता है, तुम्हारी भाषा को। वह परमात्मा को तुम्हारी भाषा में लात है। वह परमात्मा को तुम्हारे अनुकूल...जिसे तुम सह सको। वह छानता है तुम्हारे लिए। रस लग जाए, तो तुम छलांग ले लोगे। लेकिन रस इतना बड़ा न हो कि उस आचात में तुम मिट जाओ। वह धीरे-धीरे तुम्हें तैयार करता है। एक छोटे पौधे को तो सुरक्षा की जरूरत होती है। बड़े हो जाने पर किसी वागड की कोई जरूरत नहीं रहती। वह तुम्हारे छोटे से पौधे को सम्हालता है। छोटे से पौधे पर तो मेघ भी बरस जाए, तो मौत हो सकती है। मेघ से भी बचना पडे। छोटे पी धे पर तो सूरज भी ज्यादा पड़ जाए, तो मृत्यु हो सकती है। सूरज जीवनदायी है।

            लेकिन छोटे पौधे के लिए मुत्यु हो सकती है। जरूरत से ज्यादा है। छोटा पौधा उतन लेने को, सना आत्मसात करने को तैयार नहीं। गुरु की सारी चेप्या इतनी है है, कि वह परमात्मा को तुम्हारे योग्य बना दे और तुम हे परमात्मा के योग्य बना दे। परमात्मा को उसे थोड़ा रोकना पड़ता कि थोडा ठहरो , इतनी जल्दी नहीं। इतनी जोर से मत बरस जाना। वह आदमी मिट ही जाएगा।

            और तुम्हे से तैयार करना पड़ता है कि घबराओ मत, थोडी प्रतीक्षा करो। जल्दी ही वर्षा होने को है। अगर एक बंद गिरी है, तो पूरा मेघ भी गिरेगा। घबराओ मत। तुम्हें तैयार करता है ज्यादा लेने को, परमात्मा को तैयार करना है, कम देने को। और जब तुम्हारे दोनों के बीच एक संतुलन बन जाता है तो गुरु की कोई जरूरत न ही रह जाती। गुरु तो सिर्फ एक द्वार है। तुम उससे पार हो जाते हो। वह तुम्हें रोकता भी नहीं। द्वार किसी को की रोकता है? तुम उससे पार हो जाते हो। गुरु तो सिर्फ मध्य का कही है। और अगर तुम गुरु के साथ संबंध न जोड़ पाओ, तो तुम्हारी हालत ऐसी होगी. कितम हिंदी जानते हो, दसरा आदमी जापानी जानता है। वह जापानी बोल ता है, तुम हिंदी बोलते हो। दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं बनता। एक आदमी चाहिए, जो जापानी भी जानता है और हिंदी भी जानता हो। जो तालमेल बिठा दे। गुरु तालमेल बिठा देता है।

    - ओशो 

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