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    Osho Hindi Pdf- Hansa To Moti Chuge हंसा तो मोती चुगे

    Osho Hindi Pdf- Hansa To Moti Chuge

    हंसा तो मोती चुगे

    कहीं से आंच मिले इस ठंडे शहर में 
    कहीं से राग उठे इस वीराने में 
    कहीं शहनाई बजे इस मनहूस मरघटी जमाने में 

    शहनाई तो सदा बजती रही है-सुननेवाले चाहिए। और इस भरी दुपहरी में भी शीतल छाया के वृक्ष हैं-खोजी चाहिए। इस उत्तप्त नगर में भी शीतल छांव है, पर शीतल छांव में शरणागत होने की क्षमता चाहिए। शीतल छांव मुफ्त नहीं मिलती। शहनाई बजती रहती है, लेकिन जब तक तुम्हारे पास सुनने को हृदय न हो, सुनाई नहीं पड़ती। कृष्ण के ओंठों से बांसुरी कभी उतरी ही नहीं है। बांसुरी तजती ही जाती है। बांसरी सनातन है। कभी कोई सन लेता है तो जग जाता है; जग जाता है तो जी जाता है। जो नहीं सुन पाते, रोते ही रोते मर जाते हैं। जीते ही नहीं, बिना जिये मर जाते हैं। 

    श्री लालनाथ के जीवन में बड़ी अनूठी घटना से शहनाई बजी। संतों के जीवन बड़े रहस्य में शुरू होते हैं। जैसे दूर हिमालय से गंगोत्री से गंगा बहती है! छिपी है घाटियों में, पहाड़ों में, शिखरों में। वैसे ही संतों के जीवन की गंगा भी, बड़ी रहस्यपूर्ण गंगोत्रियों से शुरू होती है। आकस्मिक, अकस्मात, अचानक-जैसे अंधेरे में दीया जले, कि तत्क्षण रोशनी हो जाये ! धीमी-धीमी नहीं होती संतों के जीवन की यात्रा शुरू। शनैः शनैः नहीं। संत छलांग लेते हैं। जो छलांग लेते हैं वही जान पाते हैं। जो इंच-इंच सम्हल कर चलते हैं, उनके सम्हलने में ही इब जाते हैं। मंजिल उन्हें कभी मिलती नहीं। मंजिल दीवानों के लिए है। मंजिल के हकदार दीवाने हैं। मंजिल के दावेदार दीवाने हैं। 'लाल' दीवानों में दीवाने हैं। उनके जीवन की यात्रा, उनके संतत्व की गंगा बड़े अनूठे ढंग से शुरू हुई। और तो कुछ दसरा परिचय न है, न देने की कोई जरूरत है। हो तो भी देने की कोई जरूरत नहीं है। कहां पैदा हुए, किस गांव में, किस ठांव में, किस घर-द्वार में, किन मां-बाप से-वे सब बातें गौण हैं और व्यर्थ है। संतत्व कैसे पैदा हुआ, बुद्धत्व कैसे पैदा हुआ? राजस्थान में जन्मे इस गरीब युवक के जीवन में अचानक दीया कैसे जला; अमावस कैसे एक दिन पूर्णिमा हो गयी-बस वही परिचय है। वही असली परिचय है। न तो संत की जात पूछना न पांत पूछना। पूछना ही मत व्यर्थ की बातें। पता-ठिकाना मत पूछना। उसका पता तो एक है-राम। उसका ठिकाना तो एक है-राम। उसका जन्म भी वही, उसकी मृत्यु भी वही। उसके जीवन का सारा उदघोष वही है। 

    लेकिन संतत्व की किरण कैसे उतरी, पहली किरण कैसे उतरी? फिर सूरज तो चला आता है। किरण के पीछे-पीछे चला आता है। मगर पहली किरण का उतरना जरूर समझने योग्य है। क्योंकि उसकी पहली किरण की तुम तलाश में हो। और तुम्हारे पास से भी कहीं ऐसा न हो कि किरण आये और गुजर जाये और तुम पकड़ भी न पाओ; किरण आये और नाचती गुजर जाये और तुम्हीं उसके पगों में बंधे घूघर सुनाई न पड़ें; किरण आये और शहनाई बजाये और तुम बहरे रहे आओ; किरण आये और तुम आंख बंद किये बैठे रहो ! ...और किरण सदा अकस्मात आती है, अनायास आती है। किरण हमेशा अतिथि है, बिना तिथि बताये आती है। न कोई खबर देती है, न कोई पूर्व-आगमन की सूचना देती है। 

    कब द्वार पर दस्तक दे देगा परमात्मा, कोई भी नहीं जानता। उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। सिर्फ इस जगत में एक लीप की भविष्यवाणी नहीं हो सकती, वह है परमात्मा और तुम्हारा मिलन। और सब तो कार्य-कारण में बंधा है, इसलिए उसकी भविष्यवाणी हो सकती है। सिर्फ परमात्मा प्रसाद है, कार्य-कारण के पार है; इसलिए उसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। किसी ने सोचा भी न होगा कि लाल के जीवन में ऐसे परमात्मा का पदार्पण होगा। लाल बौना कराकर घर लौटते थे। संगी-साथी, बैंड-बाजे,रंग-रौनक, उत्सव की घड़ी थी। रास्ते में लिखमादेसर गांव पड़। वहां पर एक अनूठे संत थे कुंभनाथ- परमहंस थे। न कोई धर्म की चिंता, न कोई पंथ की, न कोई परंपरा की। धार्मिक थे, मगर किसी धर्म से..............


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