Osho Hindi Pdf- Varanasi वाराणसी
वाराणसी
ओशो का प्रथम प्रवचन राजघाट बसंत कॉलेज वाराणसी 12 अगस्त, 1968 मेरे प्रिय आत्मन्, एक छोटी-सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूँ। एक महानगरी में एक नया मंदिर बन रहा था। हजारों श्रमिक उस मंदिर को बनाने में संलग्न थे, पत्थर तोड़े जा रहे थे, मार्तयां गढ़ी जा रही थीं, दीवाले उठ रही थीं, एक परदेशी व्यक्ति उस मंदिर के पास से गुजर रहा था। पत्थर तोड़ रहे एक मजदूर से उसने पूछा, मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से अपनी हथौड़ी नीचे पटक दी, आंखे ऊपर उठाइ जैसे उन आंखों में आग की लपटे हो, ऐसे उस मजदूर ने उस अजनवी को देखा और कहा-अंधे है, दिखाई नहीं पड़ता है, पत्थर तोड़ रहा है। यह भी पूछने और बताने की जरूरत है और वापस उसने पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। वह अजनबी तो बहुत हैरान हुआ।
ऐसी तो कोई बात उसने नहीं पूछी थी कि इतने क्रोध से उत्तर मिले, वह आगे बढ़ा और उसने मशगूल दूसरे मजदूर से, वह मजदूर भी पत्थर तोड़ता था, उससे भी उसने यही पूछा कि मेरे मित्र क्या कर रहे हो, जैसे उस मजदूर ने सुना ही न हो, बहुत देर बाद उसने आंखे ऊपर उठाइ, सुस्त और उदास हारी हुई आंखें जिनमें कोई ज्योति न हो, जिनमें कोई भाव न हो और उसने कहा कि क्या कर रहा हूं, बच्चों के लिए, पत्नी के लिए रोजी-रोटी कमा रहा हूं। उतनी ही उदासी और सुस्ती से उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। वह अजनबी आगे बढ़ा और उसने तीसरे मजदूर से पूछा वह मजदूर भी पत्थर तोड़ता था। लेकिन वह पत्थर भी तोड़ता था और साथ में गीत भी गुनगुनाता था।
उसने उस मजदूर से पूछा मेरे मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने आखे ऊपर उठाइ जैसे उन आखों में फूल झड़ रहे हो खुशी से, आनंद से भरी हुई आंखों से उसने उस अजनबी को देखा और कहा-देखने नहीं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। उसने फिर गीत गाना शुरू कर दिया और पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। वे तीनों व्यक्ति ही पत्थर तोड़ रहे थे, वे तीनो व्यक्ति ही एक ही काम में संलग्न थे लेकिन एक क्रोध से तोड़ रहा था, एक उदासी से तोड़ रहा था, एक आनंद के भाव से। जो क्रोध से तोड़ रहा था उसके लिए पत्थर तोड़ना सिर्फ पत्थर तोड़ना था, और निश्चय ही पत्थर तोड़ना कोई आनंद की, कोई अहोभाग्य की बात नहीं हो सकती और जो पत्थर तोड़ रहा था स्वभावतः सारे जगत के प्रति क्रोध से भर गया हो तो आश्चर्य नहीं, जिसे जीवन में पत्थर ही तोड़ना पड़ता है, वह जीवन के प्रति धन्यता का कृतज्ञता का, भाव कैसे प्रकट कर सकता है। दूसरा व्यक्ति भी पत्थर तोड़ रहा था।
लेकिन उदास था, हारा हुआ था। जो जीवन को केवल आजीविका बना ले, जो जीवन को केवल रोजी-रोटी का अवसर बना ले, वह स्वभावतः ही उदास और हारा हुआ हो जाने को है। जीवन आजीविका बन कर आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता, तब जीवन होगा एक बोझ, तब जीवन होगा एक हारा हुआ उपक्रम, जिसमे प्रतिपल मृत्यु निकट आती चली जाती है, जिसे किसी तरह ढोना है और पूरा कर लेना है, वह आनंद का एक गीत नहीं, उदासी की एक कथा है, वह आनंद का एक उत्सव नहीं, कर्तव्य का एक बोझ है, जिसे निपटा देना है। तीसरा व्यक्ति आनंद से तोड़ता था, पत्थर को वह भी तोड़ रहा था। वे पत्थर भी ठीक वैसे ही पत्थर थे जैसे दूसरे मजदूर तोड़ रहे थे। उसके पत्थर तोड़ने के क्रम में भी कोई भेद न था, लोकन वह भगवान का मंदिर बना रहा था, जीवन वह अगर आनंद को उपलब्ध हो जाए तो आश्चर्य कैसा। जीवन वही हो जाता है, जिस भाव को लेकर हम जीवन में प्रविष्ट होते है, जीवन वही हो जाता है, जो हम उसे बनाने को आतुर, उत्सुक और प्यासे होते हैं।
जीवन मिलता नहीं, निर्मित करना होता है। जीवन बना-बनाया उपलब्ध नहीं होता सर्जन करना होता है। जन्म के साथ मिलता है अवसर, जीवन नहीं। केवल जीवन पैदा हो सके, ऐसा अवसर उस अवसर को हम खो भी सकते हैं, साधारणतः खो ही देते हैं। उस अवसर को हम विकृत भी कर सकते है-साधारणतः कर ही देते हैं। वह अवसर दुर्भाग्य भी बन सकता है। साधारणतः बन ही जाता है। लेकिन उस अवसर को एक आनंद उत्सव में भी परिणत किया जा सकता था। किया जा सकता है शायद लेकिन उसके सूत्र बहुत स्पष्ट नहीं, पहली बात-इसलिए जीवन की कला में पहली बात आपसे कहना चाहूंगा, वह यह कि जो व्यक्ति ऐसा समझ लेता है वह यह कि जीवन इसे मिल गया है-जन्म के साथ वह जीवन की कला को कभी भी नहीं सीख पाएगा। कला तो उसकी सीखनी पड़ती है, जो मिला नहीं है, जिसे आर्जत करना होता है, कला तो उसकी सीखनी होती है, जो हाथ में नहीं है, लेकिन...........
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