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    भारत को एक फिलासफी एक गलत जीवन दर्शन सिखाया गया कि दरिद्रता में संतोष है - ओशो

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    भारत को एक फिलासफी एक गलत जीवन दर्शन सिखाया गया कि दरिद्रता में संतोष है - ओशो 


    दुनिया में सबसे पहले भारत ने गणित खोज लिया था, व्हील खोज लिया था, चाक खोज लिया था। दुनिया में सबसे पहले भारत ने भाषा खोज ली थी। दुनिया में सबसे पहले भारत के पास सर्वाधिक स्रोत थे संपदा पैदा कर लेने के। लेकिन भारत को एक फिलासफी एक गलत जीवन दर्शन सिखाया गया कि दरिद्रता में संतोष है, दरिद्रता ठीक है जो है वह ठीक है। संपदा के विस्तार की कामना और योजना भारत के मन को नहीं दी गई। उसका परिणाम है कि भारत दरिद्र है। और वही विचार आज भी हमारे दिमाग में है ।

    आज भी हमारे दिमाग में यह विचार है ग्राम-उद्योग, चरखा, ना- मालूम कितने तरह की बेवकूफियां हमारे दिमाग में हैं। जिनसे संपदा फिर पैदा नहीं होगी और देश दरिद्र ही बना रहेगा । और देश जितना दरिद्र बनेगा उतना ही दरिद्र का विद्रोह अमीर के प्रति होना स्वाभाविक है । और आज नहीं कल दरिद्र और समृद्धि के बीच एक उपद्रव हो और उस उपद्रव में जो थोड़ी-सी संपदा मुल्क में पैदा करने के संभावनाएं हैं वे भी नष्ट हो जाएं। तो भारत को एक तो विस्तार, समृद्धि, संपदा, और जीवन को जितना ज्यादा हम विकासमान कर सकें उसकी एक फिलासफी की जरूरत है।

    मेरी मान्यता है कि मनुष्य के अहित में, दरिद्रता के विचार और आदर ने जितना काम किया उतना किसी और बात ने नहीं किया है। मनुष्य की संपदा बढ़ने में रुकावट पैदा हो गई। इसलिए हम विज्ञान की खोज नहीं कर पाए। हमने कोई तकनीक की खोज नहीं की। और आज तकनीक के युग में भी हम बैठ कर चरखा कात रहे हैं । और विचार कर रहे हैं कि इस भांति हम मुल्क को समृद्ध बना लेंगे। और इस भांति हम सोच रहे हैं कि स्वावलंबी हो जाएंगे। स्वावलंबन की बात फिजूल है। समाज का अर्थ है कि वहां कोई स्वावलंबी नहीं हो सकता । स्वावलंबी होने की चेष्टा स्युसाइडल है।

    अगर एक आदमी स्वावलंबी होने की चेष्टा करे तो सिर्फ मरेगा, जी नहीं सकता। स्वावलंबन का कोई मतलब नहीं है। जीवन को चाहिए सबका सहयोग। जितना बड़ा सहयोग होगा उतनी बड़ी संपदा पैदा होगी। और एक-एक आदमी इस खयाल में हो कि मैं अपने लायक पैदा कर लूं, तो वह दरिद्र ही जीएगा। पुरानी दुनिया इसलिए दरिद्र थी। पूंजीवाद ने पहली दफा सहयोग, समूह और परावलंबन के द्वारा संपत्ति पैदा करने का उपाय खोजा । दुनिया दरिद्र थी। एक-एक आदमी अपने लिए चरखा कात रहा था। अपनी खेती पर दो जरा से टुकड़े में काम कर रहा था। अपना मकान बना रहा था, सोचता था पर्याप्त है। पहली बार हम एक-दूसरे पर निर्भर हो जाएं, पहली बार हम एक-दूसरे पर इतने निर्भर हो जाएं कि यह खयाल ही न रह स्वावलंबन का कि मैं अपने पैर पर खड़ा हो जाऊं। अपने पैर पर आप कैसे खड़े हो सकते हैं? श्वास लेते हैं तो सारे जगत की हवाओं पर निर्भर हैं, रोशनी लेते हैं तो दूर सूरज पर निर्भर हैं। अभी सूरज ठंडा हो जाए तो हम यहीं ठंडे हो जाएंगे। हम क्या स्वावलंबी हो सकते हैं? सारा जगत एक इकट्ठी इकाई है। पूरी मनुष्यता एक इकाई है। स्वावलंबी होने की जरूरत नहीं  है।

     - ओशो 

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