स्वयं की कील - ओशो
स्वयं की कील - ओशो
संसार का चक्र घूम रहा है, लेकिन उसके साथ तुम क्यों घूम रहे हो? शरीर और मन के भीतर जो है, उसे देखो। वह तो न कभी घूमा है, न घूम रहा है, न घूम सकता है। वही तुम हो। 'तत्वमसि, श्वेतकेतु'। सागर को सतह पर लहरें हैं, पर गहराई में? वहां क्या है ? सागर को उसकी सतह ही समझ लें तो बहुत भूल हो जाती है। बैलगाड़ी के चाक को देखना। चाक घूमता है, क्योंकि कील नहीं घूमती है। स्वयं की कील का स्मरण रखो। उठते, बैठते, सोते, जागते उसकी स्मृति को जगाए रखो। धीरे-धीरे सारे परिवर्तन के पीछे उसके दर्शन होने लगते हैं जो कि परिवर्तन नहीं है।
- ओशो
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