समानता अगर हम लाते हैं तो स्वतंत्रता पूरी तरह नष्ट हो जायेगी - ओशो
समानता अगर हम लाते हैं तो स्वतंत्रता पूरी तरह नष्ट हो जायेगी - ओशो
समानता अगर हम लाते हैं तो स्वतंत्रता पूरी तरह नष्ट होती है। और अगर हम पूरी तरह स्वतंत्रता देते हैं तो जीवन इतना दुखी, दरिद्र और परेशानी से भर जाता है।
क्या इन दोनों के बीच कोई मार्ग नहीं हो सकता? क्या इतनी स्वतंत्रता हम स्थापित नहीं कर सकते कि प्रत्येक व्यक्ति को असमान और स्वयं होने की मुक्ति हो ? और क्या इतनी समानता हम व्यवस्थित नहीं कर सकते कि समानता और स्वतंत्रता का अंत न बने? क्या कोई नई जीवन रचना और व्यवस्था नहीं हो सकती ? क्या पूंजीवाद और समाजवाद दो ही चिंतना के मार्ग हैं ?
नहीं; तीसरी एक जीवन चेतना हो सकती है, उसे मैं मानववाद कहता हूं। एक ह्यूमनिस्ट सोसाइटी हो सकती है। ह्यूमनिस्ट सोसाइटी के लिए मानववादी समाज की रचना का मूलभूत आधार होगा कि व्यक्ति परम मूल्यवान है।
समाज परम मूल्यवान नहीं है न ही संपदा परम मूल्यवान है। संपदा और समाज दोनों का अल्टीमेट वैल्यू नहीं है, चरम मूल्य नहीं है। चरम मूल्य व्यक्ति का है, एक-एक व्यक्ति का है। दूसरी बात होगी कि एक - एक व्यक्ति मूलतः स्वभावतः असमान है और भिन्न है । और जो समाज व्यवस्था व्यक्ति की भिन्नता को स्वीकार नहीं करती, वह व्यक्ति को नष्ट करने वाली बनेगी। प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है और समाज इसलिए है कि प्रत्येक व्यक्ति को भिन्न होने का पूरा अवसर मिल सके। ईक्वल अपरचुनिटीज टू बी अनईक्वल । एक - एक व्यक्ति को स्वयं अपने भिन्न रूप से होने की समान सुविधा और व्यवस्था मिल सके।
उस समाज व्यवस्था में, पूंजी का मूल्य कम करना जरूरी है। न तो पूंजीवाद में पूंजी का मूल्य कम होता है और न समाजवाद में। समाजवाद में पूंजी का मूल्य पूंजीवाद से भी ज्यादा हो जाता है। क्योंकि पूंजी एक जगह जाकर सेंट्रलाइज और केंद्रित हो जाती। और एक बार सारी पूंजी केंद्रित हो गई, तो जिन हाथों में पूंजी केंद्रित हो जाएगी उन हाथों को रोकने के लिए फिर कुछ भी उपाय नहीं है कि वे क्या करें और उन्हें कैसे रोका जा सकता है। निश्चित ही अगर आदमी अपनी पूरी आत्मा को खोने को तैयार हो, तो हम उसे ज्यादा रोटी दे सकते हैं, ज्यादा अच्छा मकान दे सकते हैं, ज्यादा अच्छे कपड़े दे सकते हैं। लेकिन यह सौदा बहुत मंहगा होगा।
बहुत अच्छे कपड़े, बहुत अच्छी रोटी, बहुत अच्छे मकान, और सारी सुविधाएं अगर हम इस मूल्य पर देते हैं कि हम उसका व्यक्तित्व छीन लेंगे; तो मैं समझता हूं, यह विकल्प वैसा ही होगा जैसा सुकरात ने कहा था कि मैं एक संतुष्ट सुअर होने की बजाय, एक असंतुष्ट सुकरात होना पसंद करूंगा। सब भांति सुविधा मिल गई और आत्मा खोने की बजाय मैं नहीं सोचता कि कोई भी विचारशील लोग, इससे ज्यादा बेहतर यह पसंद करेंगे कि व्यक्ति की आत्मा जीवित रहे, व्यक्तित्व जीवित रहे, चाहे उसके लिए कितनी ही पीड़ा और परेशानी झेलनी पड़े। हालांकि परेशानी झेलने की कोई अनिवार्यता नहीं है। कोई जरूरी नहीं कि हम परेशानी झेलें ।
- ओशो
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