सुनने की कला - ओशो
सुनने की कला - ओशो
जो भी मैं कहता हूं, उसमें नया कुछ नहीं है। न ही उसमें कुछ भी पुराना है। या वह दोनों है— पुराने से पुराना और नए से नया। और यह जानने के लिए तुम्हें मुझे सुनने की जरूरत नहीं। ओह! सुनो प्रातः पक्षियों के कलरव को—या फूलों को और धूप में चमकती घास की बालियों को और तुम उसे सुन लोगे। और यदि तुम्हें सुनना नहीं आता, तो तुम मुझसे भी न जान सकोगे। इसलिए वास्तविक बात यह नहीं है कि तुम क्या सुनते हो— वरन तुम कैसे सुनते हो। क्योंकि संदेशा तो सब जगह है-सब जगह-सब जगह। अब मैं तुम्हें सुनने की कला बतलाता हूं___ घूमते रहो जब तक कि प्रायः निढाल न हो जाओ। या नाचो—या तीव्रता से श्वास लो और तब जमीन पर गिरकर सुनो। अथवा, जोर-जोर से अपना नाम दोहराओ जब तक कि थक न जाओ। और तब अचानक रुको और सुनो। अथवा, नींद-प्रवेश के बिंदु पर, जब कि नींद अभी भी नहीं आयी हो और बाह्य-जागरण चला गया हो—अचानक सतर्क हो जाओ और सुनो। और, तब तुम मुझे सुन लोगे।
- ओशो
No comments