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    पाप-पुण्य कर्मों में नहीं होते, पाप-पुण्य होते हैं चित्त की दशाओं में - ओशो

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    पाप-पुण्य कर्मों में नहीं होते, पाप-पुण्य होते हैं चित्त की दशाओं में - ओशो 


    जरा-सी आग पकड़ाने की जरूरत है और आप दुनिया को एकदम पाप से भर सकते हैं। फिर लाखों लोगों को काट सकते और मजा लेंगे। ये वे ही लोग जो पानी छान कर पीते हैं, जो यह खबर सुन कर प्रसन्न होते हैं कि पाकिस्तान का फलाना गांव बर्बाद कर दिया गया या हिंदुस्तान का फलाना गांव बर्बाद कर दिया गया। वही आदमी जो रोज नमाज पढ़ता है, वह प्रसन्न होता है कि अच्छा हुआ । मैं यह समझ नहीं सकता कि यह आदमी जो पानी छान कर पीता था, अखबार में पढ़ता है, रात को खाना नहीं खाता था, अखबार में पढ़ता है कि इतने पाकिस्तानी मर गए, तो सोचता है बहुत अच्छा हुआ।

    यह आदमी अहिंसक है? इसका पानी छान कर पीना धोखा है, बेईमानी है, इसका रात को न खाना सब झूठी बकवास है। इसका कोई मतलब और मूल्य नहीं है। इसका स्टेट ऑफ माइंड तो पाप का है। यह कर्म-वर्म कुछ भी करे इसकी चित् की दशा तो पापपूर्ण है। इसलिए दुनिया को कभी भी किसी भी भूकंप में डाला जा सकता है, किसी भी उपद्रव में डाला जा सकता है। लोगों के काम तो बड़े अच्छे मालूम होते हैं, लेकिन चित्त की दशा जरा ही स्किनडीप, जरा सी चमड़ी उघाड़ो भीतर पाप मौजूद है। और काम बड़े अच्छे-अच्छे कर रहे हैं।

    टालस्टाय ने लिखा है कि मैं एक दिन सुबह - सुबह चर्च में गया। अंधेरा था, सर्दी के दिन थे, बर्फ पड़ती थी, कोई नहीं था चर्च में, मैं गया, एक और आदमी था वह कनफेशन कर रहा था भगवान के सामने । उसे पता नहीं कि कोई दूसरा भी अंधेरे में मौजूद है, नहीं तो कनफेशन करता ही क्यों ? वह वहां कह रहा था कि हे परमपिता, मैं बड़ा बुरा आदमी हूं, मेरे मन में बड़े पाप उठते हैं, तू मुझे क्षमा कर, चोरी का भाव भी आता है, पर-स्त्री - गमन का भाव भी आता है, दूसरे के धन को हड़प लेने की वृति भी पैदा होती, तू मुझे क्षमा कर । उसे पता नहीं था कि यहां कोई और आदमी भी खड़ा है। वह चर्च से

    बाहर निकला टालस्टाय उसके पीछे हो लिया। जब बीच बाजार में पहुंचे, सुबह हो गई थी, लोग आ-जा रहे थे, उन्होंने चिल्ला कर कहा कि ओ पापी, चोर खड़ा रह । वह आदमी बोला, अरे, कौन कहता है मुझसे पापी और चोर ? टालस्टाय ने कहा कि मैं चर्च में मौजूद था, मैंने सुन लिया।

    उस आदमी ने कहा, अगर दुबारा मुंह से निकाला तो अदालत में अपमान का मुकदमा चलाऊंगा। वह बड़ा प्रतिष्ठित आदमी था गांव का। वह मैंने भगवान के सामने कहा, तुम्हारे सामने नहीं कहा। टालस्टाय ने कहा, मैंने तो यह सोचा कि तूने मान लिया है कि तू पापी है, चोर है, लेकिन तू मानने को राजी नहीं । अदालत में मुकदमा चलाएगा?

    यह, यह स्थिति है हमारे चित्त की । भीतर तो वह छिपा है और बाहर हम अदालत में मुकदमा चलाएंगे कोई हमसे चोर कह दे, हम शिकायत करेंगे कि यह क्या आपने हमसे कह दिया। तो हमारा कर्म हमारा ऊपर का आवरण मूल्य नहीं रखता। मूल्य तो अंतस रखता, उस अंतस की क्रांति की बात है। मैं मानता हूं, पाप-पुण्य कर्मों में नहीं होते, पाप-पुण्य होते हैं चित्त की दशाओं में ।

    एक आदमी की चित्त की दशा पाप की हो, अंधकार की हो, तो वह कुछ भी करे, कुछ भी करे, कितना ही पानी छाने, कितनी बार छाने उसकी हिंसा नहीं मिटेगी। और कितना ही रात को खाए, न खाए, कितना ही उपवास करे, न करे, कितनी ही पूजा करे, कितनी ही प्रार्थना करे – कुछ भी करे, लाख करे, अगर भीतर चित्त की दशा अंधकारपूर्ण है उसका सब करना पापपूर्ण होगा। उसके भीतर पाप की स्थिति बनी ही रहेगी। वह जा नहीं सकती। वह किसी स्थिति में नहीं जा सकती। उसे तो सीधी चोट करनी होगी कोई और उपायों से कि वहां भीतर परिवर्तन हो, अंधकार मिटे और प्रकाश आए। तब उसके कर्म परिवर्तित हो जाएंगे।

    तब हो सकता है वह रात को भी भोजन कर ले और हिंसक न हो, तब हो सकता है कि वह पानी भी बिना छाने कभी पी जाए और हिंसक न हो। वह तो चित्त की भीतर परिवर्तन की स्थिति है। वह वहां परिवर्तन होना चाहिए, और तब फिर जीवन का कर्म सहज ही ठीक होना शुरू हो जाता है उसे ठीक करना नहीं होता । वह सहज ही ठीक होना शुरू हो जाता है। सहज ही भीतर जब ज्योति आनी शुरू होती है, कर्म का अंधकार गिरने लगता है और कर्म पुण्य होने लगते हैं।

     - ओशो 

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