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    पाप क्या है? पुण्य क्या है - ओशो

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    पाप क्या है? पुण्य क्या है - ओशो 


    दूसरा प्रश्न इसी संदर्भ में पूछा है कि पाप क्या है? पुण्य क्या है ?

    भीतर दीया जला हो चैतन्य का, तो जो कर्म होते हैं वे पुण्य हैं। भीतर दीया बुझा हो, तो जो कर्म होते हैं वे पाप हैं। समझ लेना आप? कोई कर्म न तो पाप होता है न पुण्य होता है। पुण्य और पाप करने वाले पर निर्भर होते हैं। कोई कर्म पाप और पुण्य नहीं होता। आमतौर से हम यही मानते हैं कि कर्म, पुण्य और पाप होते हैं। यह काम बुरा है और वह काम अच्छा है। यह बात नहीं है। जिस आदमी के भीतर का दीया बुझा है वह कोई अच्छा काम कर ही नहीं सकता। यह असंभव है। दिख सकता है कि अच्छा काम कर रहा है। जिनके भीतर दीये जले रहे हैं उनके कर्मों का अनुकरण कर सकता है। लेकिन अनुकरण में भी वासना उसकी विपरीत होगी।

    अगर वह मंदिर बनाएगा, तो वह परमात्मा का नहीं होगा, अपने पिता का होगा। उनका नाम लिखवा देगा। अगर वह किसी को दान देगा, तो फिक्र में होगा कि अखबार नवीस, जर्नलिस्ट आसपास हैं या नहीं। वे खबर छापते हैं या नहीं छापते । वह दान, प्रेम और करुणा नहीं होगी, वह भी अहंकार का प्रकाशन होगा। अगर वह किसी की सेवा करेगा, तो वह सेवा सेवा नहीं होगी। वह सेवा के गुणगान भी करेगा, करवाना चाहेगा। वह कहेगा मैं सेवक हूं। वह चाहेगा कि लोग मानें कि मैंने सेवा की है। वह जो भी करेगा उसके करने के पीछे चूंकि दीया जला हुआ नहीं है इसलिए काम अच्छे दिखाई पड़ें भला, पाप ही होंगे। भीतर दीया जला न हो, तो जो भी हो सकता है वह पाप ही हो सकता है।

    पाप मेरे लिए चित्त की एक दशा है, कर्म का स्वरूप विभाजन नहीं। और अगर भीतर का दीया जला हो, तो वह जो भी करे वह पुण्य होगा। हो सकता है ऊपर से दिखाई पड़े कि यह तो पुण्य नहीं, यह कर्म तो पुण्य नहीं; लेकिन वह पुण्य ही होगा। असंभव है कि उससे पाप हो जाए, क्योंकि जिसका बोध जाग्रत है उससे पाप कैसे हो सकता है? उससे पाप नहीं हो सकता। लेकिन हम कर्म के तल पर चीजों को नापते - तोलते हैं। कल या परसों मैंने आपसे कहा, आचरण बहुत मूल्यवान नहीं है, अंतस मूल्यवान है । तो अंतस पाप की स्थिति में हो सकता है यदि अंधकार से भरा है, अंतस पुण्य की स्थिति में होता अगर वह प्रकाश से भरा है।

    प्रकाशपूर्ण चित्त पुण्य की दशा में है, अंधकारपूर्ण चित्त पाप की दशा में है। ये कर्म के लक्षण नहीं हैं। ये कर्म के बिलकुल लक्षण नहीं हैं। कर्म का लक्षण, कर्म का लक्षण कुछ भी तय नहीं करता, क्योंकि व्यक्ति भीतर बिलकुल दुर्जन हो सकता है, आचरण बाहर सज्जन का कर सकता है। अनेक कारणों से।

    हम इतने लोग यहां बैठे हैं, हम शायद सोचते होंगे कि हम चोरी नहीं करते तो हम बड़ा पुण्य करते हैं। लेकिन अगर आज पता चल जाए कि हुकूमत नष्ट हो गई, चौरस्ते पर कोई पुलिस का आदमी नहीं है, अब कोई अदालत न रही, अब कोई सिपाही नहीं, अब कोई कानून नहीं। फिर पता चलेगा कितने लोग चोरी नहीं करते हैं। आप सोचते होंगे हम चोरी नहीं करते तो बड़ा पुण्य का काम कर रहे हैं। चोरी न करना काफी नहीं है, चित्त में चोरी के न होने का सवाल है। आपको अगर सबको सुविधा और पूरा मौका मिल जाए, मुश्किल से कोई बचेगा जो चोरी न करे।

    तो यह जो अचोरी है यह फिर पुण्य नहीं है। यह केवल भय और दहशत और डर, कमजोरी और अनेक बातें हैं जिनकी वजह से आप चोरी नहीं कर रहे हैं। आपको मौका नहीं हैं, भयभीत हैं, कमजोर हैं, डरे हुए हैं, उस डर को, भय को छिपाने के लिए अदालत से नर्क से घबड़ाए हुए हैं । उसको छिपाने के लिए आप कहते, मैं तो चोरी नहीं करता, चोरी करना बहुत बुरी बात है। मैं तो चोरी करने का बुरा काम करता ही नहीं। जो आदमी कर रहा है चोरी, उसमें आप में हो सकता है केवल सामर्थ्य का और साहस का फर्क हो, केवल सामर्थ्य और साहस का फर्क हो। वह ज्यादा साहसी हो, या हो सकता है विवेकहीन हो, इसलिए विवेकहीन में ज्यादा साहस दिखाई पड़ जाता है। क्योंकि उसे समझ में नहीं आता कि मैं क्या कर रहा हूं, क्या परिणाम होगा? आप सब हिसाब-किताब सोचते हैं। लेकिन अगर सारी चोरी की सुविधाएं हों, सारी चोरी की भीतर अनुकूल परिस्थिति हो, और फिर कोई आदमी चोरी न करे तो बहुत अलग बात हो जाएगी, बहुत अलग बात हो जाएगी।

     - ओशो 

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