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    चाहे ज्ञानेंद्रियां हों, चाहे कर्मेंद्रियां हों, साक्षीभाव संभव है - ओशो

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    चाहे ज्ञानेंद्रियां हों, चाहे कर्मेंद्रियां हों, साक्षीभाव संभव है  - ओशो 


    एक और प्रश्न है। पूछा है— ज्ञानेंद्रियों से साक्षीभाव सत्य है, ऐसा कर्मेंद्रियों से सत्य है या नहीं ?

    साक्षीभाव का अर्थ यदि समझ गए हैं, तो चाहे ज्ञानेंद्रियां हों, चाहे कर्मेंद्रियां हों, साक्षीभाव संभव है । साक्षीभावा अर्थ है : जो भी हो रहा है— चाहे विचार में हो रहा हो, चाहे कर्म में हो रहा हो। हम उस होते क्षण में अपने भीतर ध्यान के एक बिंदु पर मात्र तटस्थ दर्शक हो सकें।

    सिकंदर हिंदुस्तान से वापस लौटता था। वापस लौटने लगा तो उसे स्मरण आया, जब वह सीमा को छोड़ने लगा उसे स्मरण आया, भारत आते वक्त यूनान में उसने लोगों से पूछा था, क्या-क्या चाहते हो जो मैं भारत से लूट कर लाऊं ? तो धन था, संपत्ति थी, स्वर्ण थे, आभूषण थे, हिंदुस्तान की बड़ी-बड़ी ख्याति की चीजें थीं, लोगों ने कहा, वे लेते आना। एक पागल ने यह भी कहा कि हिंदुस्तान से एक संन्यासी को लेते आना। संन्यासी और कहीं होता नहीं। यह प्राणी यहीं पैदा होता है। तो उन्होंने कहा, एक संन्यासी को भी लेते आना। वह भी अजीब चीज होगी, हम जरा देखें, क्या मामला क्या है? संन्यासी क्या है ?

    सिकंदर जब सब लूट कर लौटने लगा सीमा पर था उसे खयाल आया। एक चीज रह गई, लोग पूछेंगे संन्यासी को और पकड़ लाओ। सिपाहियों को उसने कहा कि जाओ, पता लगाओ आसपास कोई संन्यासी हो तो ले चलें। सिपाही गांव में गए, गांव के वृद्धों से पूछा, पता चला गांव के बाहर एक संन्यासी है। लेकिन लोगों ने कहा, जिसे तुम पकड़ कर ले जा सको समझ लेना वह संन्यासी नहीं है। और जो संन्यासी होगा उसे ले जाना बड़ा कठिन है। फिर भी गांव के बाहर एक संन्यासी है तुम जाओ और मिल लो।

    सिपाही गए, नंगी तलवारें उनके हाथ में थीं। एक नंगा फकीर वहां खड़ा हुआ था नदी के किनारे, उन्होंने उससे कहा, यही है क्या? इसकी क्या ताकत बांधो और ले चलो। उन सिपाहियों ने कहा कि आज्ञा है महान सिकंदर की कि आप हमारे साथ यूनान चलें। संपत्ति देंगे, समादर देंगे, सुविधा देंगे, वहां कोई कष्ट न होने देंगे। संन्यासी हंसने लगा, उसने कहा कि तुम्हें संन्यासियों से बात करने का ढंग मालूम नहीं। पहली तो बात, जिस दिन संन्यासी हुए उसी दिन से किसी की भी आज्ञा माननी छोड़ दी, नहीं तो संन्यासी का मतलब ही नहीं । अब हम अपनी ही आज्ञा मानते हैं इस जगत में और किसी की भी नहीं ।

    दूसरी बात, तुम कहते हो आदर देंगे, सुविधा देंगे, जिस दिन संन्यासी हुए उसका अर्थ यह है कि प्रलोभन हमने छोड़ दिया। तुम हमें प्रभावित नहीं कर सकते। सिपाहियों ने कहा, तो फिर स्मरण रखो, प्रलोभन से प्रभावित नहीं होंगे तो दंड से तो प्रभावित हो ही जाओगे। संन्यासी हंसने लगा, उसने कहा, तुम्हें पता नहीं, जो प्रलोभन से प्रभावित होता है केवल वही दंड से भी प्रभावित होता है। दंड भी प्रलोभन का उलटा रूप है । सिपाही हैरान हुए ! उन्होंने कहा, तो हम महान सिकंदर को क्या कहें? उस संन्यासी ने कहा कि जाओ और कह दो, संन्यासी अपनी मर्जी से चलता है, अपनी मर्जी से बैठता है। उसके ऊपर कोई मर्जी नहीं लादी जा सकती । संन्यासी पर कोई सत्ता नहीं चलाई जा सकती । कह देना, संन्यासी पर सत्ता इसलिए नहीं चलाई जा सकती कि संन्यासी वस्तुतः जीवित ही नहीं है । जीवित हो तो डर दिया जा सकता है कि मार डालेंगे। तो तुम जाओ यह कह देना।

    सिकंदर खुद आया और उसने कहा कि तुम भूल में हो। अगर मैं तुम और तुम्हारे पूरे मुल्क से भी कहूं कि चलो, तो चलना पड़ेगा। तुम्हारी क्या हस्ती ? देखते हो यह तलवार, गर्दन अलग कर दी जा सकती है। संन्यासी हंसा और उसने कहा कि अगर तुम गर्दन अलग करोगे, तो जिस भांति तुम देखोगे कि गर्दन गिरी, उसी भांति हम भी गर्दन का गिरना देखेंगे। हम भी, क्योंकि न तुम ये गर्दन हो, न हम गर्दन हैं । तो तुम भी देखोगे हम भी देखेंगे, तुम भी साक्षी बनोगे हम भी साक्षी बनेंगे, इस तरह के हम साक्षी हैं। तो तुम गर्दन काट दो, लेकिन वह गर्दन मेरी नहीं होगी, हम तो साक्षी रहेंगे पीछे देखते रहेंगे कि अब गर्दन काटी गई, अब चोट लगी, अब गर्दन गिर गई।

    शरीर के प्रति साक्षी हुआ जा सकता है क्योंकि भीतर चेतना पृथक है, अलग है । यह हाथ मैं उठाता हूं— इस वक्त एक क्रिया हो रही कि मैंने हाथ उठाया, तो हमें केवल एक ही बात का पता है कि मैं हाथ के उठाने का कर्ता हूं। लेकिन भीतर खयाल करें, जब हाथ को मैं उठा रहा हूं तो भीतर एक चेतना है जो देख रही है कि हाथ उठ रहा है। जब रास्ते पर आप चल रहे हैं तो आपके भीतर कोई देख रहा है कि आप चल रहे हैं। जब आप कुछ भी कर रहे हैं तो आपके भीतर कोई देख रहा है कि आप कुछ कर रहे हैं। चौबीस घंटे आपके भीतर कोई देखने वाला बिंदु है। लेकिन आपको उसका होश नहीं है।

     - ओशो 

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