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    प्रेम की चरम अनुभूति का नाम प्रार्थना है - ओशो

     

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     प्रेम की चरम अनुभूति का नाम प्रार्थना है - ओशो 


    एक मुसलमान सूफी फकीर औरत हुई राबिया । उसके धर्मग्रंथ में कहीं लिखा था कि शैतान को घृणा करो। उसने वह पंक्ति काट दी। अब धर्मग्रंथ में सुधार करना बड़ा पाप है। क्योंकि धर्मग्रंथ गलत में कौन संशोधन करे। अब आप उठाएं और गीता में संशोधन कर दें। कुछ लकीरें काट दें और कुछ लिख दें, तो लोग आपको कहेंगे, आपने यह क्या अनर्थ कर डाला।

    एक फकीर उसके घर मेहमान था, हसन नाम का फकीर था। उसने कुरान पढ़ी, उसने कहा, यह किसने इसमें गड़बड़ कर दी? यह तो ग्रंथ अपवित्र हो गया ? यह किसने काट दिया कि शैतान को घृणा करो ? राबिया ने कहा, मैंने ही काटा है। उसने कहा, यह तुमने क्या भूल की है ? राबिया ने कहा कि अब मेरी बड़ी मुश्किल हो गई, जब से मैं प्रार्थना में प्रविष्ट हुई हूं— अब मैं किसी को घृणा कर ही नहीं सकती।

    अगर कोई शैतान मेरे सामने खड़ा हो जाए तो प्रेम करने को मजबूर हूं— ईश्वर भी खड़ा हो, शैतान भी खड़ा हो – मैं दोनों को प्रेम कर सकूं। असल में अब मैं पहचान ही नहीं पाऊंगी कि कौन ईश्वर है ? कौन शैतान है ? क्योंकि प्रेम भेद करना नहीं जानता। तो मैं कैसे उसको घृणा करूं? मैं उसको पहचान ही नहीं पाऊंगी कि यह शैतान है। क्योंकि प्रेम कोई भेद नहीं करता। घृणा भेद करती है।

    प्रेम अभेद करता है, प्रेम अद्वैत, अद्वैत । प्रेम ही अकेला अद्वैत है। यह जो प्रेम की अद्वैत अनुभूति है, उस चरम अनुभूति का नाम प्रार्थना है। प्रेम का ही परिसूत्रतम रूप प्रार्थना है। इसका ही अंतिम विकास प्रार्थना है। उस प्रार्थना को चाहता हूं, इसलिए जो तथाकथित प्रार्थनाएं हैं, चाहता हूं कि यह न हों, तो शायद उस तरफ हमारी दृष्टि उठे। अगर इनसे हम मुक्त हो जाएं तो उस तरफ प्रवेश हो सकता है।

     - ओशो 

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