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    मन में उठते बुरे भावों का निराकरण - ओशो

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    मन में उठते बुरे भावों का निराकरण - ओशो 

    मन में उठते बुरे भावों को किस प्रकार रोका जाए? यदि रोकना है, तो रोकना ही नहीं। रोका, कि वे आए। उनके लिए निषेध सदा निमंत्रण है। और दमन से उनकी शक्ति कम नहीं होती, वरन बढ़ती है। क्योंकि दमन से वे मन की और भी गहराइयों में चले जाते हैं। और न ही उन भावों को बुरा कहना। क्योंकि बुरा कहते ही उनसे शत्रुता और संघर्ष शुरू हो जाता है। और स्वयं में स्वयं से संघर्ष, संताप का जनक है। ऐसे संघर्ष से शक्ति का अकारण अपव्यय होता है, और व्यक्ति निर्बल होता जाता है। जीतने का नहीं, हारने का ही यह मार्ग है।

    फिर क्या करें?

    पहली बात—जानें कि न कुछ बुरा है, न भला है—बस भाव हैं। उन पर मूल्यांकन न जड़ें; क्योंकि तभी तटस्थता संभव है।

    दूसरी बात रोकें नहीं, देखें। कर्ता नहीं, द्रष्टा बनें। क्योंकि तभी संघर्ष से विरत हो सकते हैं। तीसरी बात—जो है, उसे बदलना नहीं है, स्वीकार करना है। जो है, सब परमात्मा का है। इसलिए आप बीच में न आएं, तो अच्छा है।  आपके बीच में आने से ही अशांति है। और अशांति में कोई भी रूपांतरण संभव नहीं है। समग्र-स्वीकृति का अर्थ है कि आप बीच से हट गए हैं। और आपके हटते ही क्रांति है। क्योंकि जिन्हें आप बुरे भाव कह रहे हैं, उनके प्राणों का केंद्र अहंकार है। अहंकार है, तो वे हैं। अहंकार गया कि वे गए। आपके हटते ही वह सब हट जाता है, जिसे कि आप जन्मों-जन्मों से हटाना चाहते थे और नहीं हटा पाए थे। क्योंकि उन सबों की जड़ें आपमें ही छिपी थीं।

    लेकिन, लगता है कि आप सोच में पड़ गए।

    सोचिए नहीं, हटिए। बस हट ही जाइए, और देखिए। जैसे अंधे को अनायास आंखें मिल जाएं, बस ऐसे ही सब कुछ बदल जाता है। जैसे अंधेरे में अचानक दीया जल उठे, बस ऐसे ही सब कुछ बदल जाता है।

    कृपा करिए और हटिए!

    - ओशो 

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