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    प्रार्थना चित्त की प्रेम की गहरी दशा है - ओशो

     

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    प्रार्थना चित्त की प्रेम की गहरी दशा है  - ओशो 


    प्रार्थना बड़ी आंतरिक मनोदशा है । और जब वह हो तो जीवन में दृष्टिकोण बड़ा दूसरा होगा, बहुत दूसरा होगा। और अगर वह न हो, तो लोभी, कामी सब प्रार्थना करते हु दिखाई पड़ेंगे। अपने लोभ के लिए, अपनी कामना के लिए, इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करेंगे कि परमात्मा प्रसन्न हो जाए, हम जो चाहते हैं वह हमें मिल जाए। उन्हें परमात्मा से कोई मतलब नहीं है, उनकी जो मांग है उससे उन्हें मतलब है। अगर वह मिल जाएगी तो वे मानेंगे कि परमात्मा है, अगर वह नहीं मिलेगी वे कहेंगे कि हमें परमात्मा पर शक है, पता नहीं परमात्मा है या नहीं।

    अगर दस बार मांगा और फिर प्रार्थना पूरी न हुई, तो उन्हें परमात्मा पर संदेह हो जाएगा। यानि उनके लिए परमात्मा जो है वह उन वस्तुओं से कम मूल्य का है जिनको वे मांग रहे हैं। मेरे पास लोग आते हैं वे कहते हैं, प्रार्थना तो बड़ी सत्य है। क्योंकि हम नौकरी में नहीं थे, हमने प्रार्थना की और नौकरी मिल गई। कोई मुझसे कहता है, प्रार्थना तो बड़ी सत्य है। हम बड़ी दिक्कत में थे, प्रार्थना की और दिक्कत के बाहर हो गए। मैं उनसे पूछता हूं, क्या तुम सोचते हो, जो लोग दिक्कत में होते हैं और प्रार्थना नहीं करते वे कभी दिक्कत के बाहर नहीं होते ? क्या तुम सोचते हो जो लोग प्रार्थना नहीं करते और नौकरी में नहीं होते क्या उन्हें कभी नौकरी नहीं मिलती ? क्या तुम सोचते हो कि जो नास्तिक मुल्क है जहां कोई प्रार्थना नहीं होती वहां सब लोग नौकरी के बाहर हैं? और सारे लोग दिक्कत में?

    नहीं, लेकिन हम प्रार्थना से संबंध जोड़ लेते हैं। और हमारे लिए प्रार्थना का न कोई मूल्य है न परमात्मा का । हमें तो हमारी कामना पूरी हो जाए तो मूल्य है। किसी को एक बच्चा पैदा हो जाए, वह परमात्मा से ज्यादा मूल्यवान है, क्योंकि उसने प्रार्थना की थी और बच्चा हुआ — इसलिए परमात्मा है । यह हमारा तर्क, ये हमारे सोचने के ढंग ! हमें क्षुद्र चीजें मूल्यवान हैं, और हम उन क्षुद्र चीजों को मान कर सोचते हैं कि कुछ होगा।

    असल में जहां भी मांग है, वहां किसी न किसी क्षुद्र बात की होगी । ऐसे लोग हुए हैं जो कहेंगे, प्रार्थना में वस्तुएं म मांगिए; स्वर्ग मांगिए, मोक्ष मांगिए । ये भी सब कामनाएं हैं, ये भी सब वासनाएं हैं, ये भी सब डिजायर्स हैं। यह बहुत लोभ का गहरा अंग है। एक आदमी है जो जाकर कहता है, मुझे बच्चा चाहिए । एक संन्यासी कहेगा कि यह क्या क्षुद्र मांग मांगते हो। अरे परमात्मा से मांगना है तो मांगो कि हमें अनंत अनंत चाहिए। मेरी दृष्टि में बच्चे को मांगने वाला कम लोभी है, अनंत-अनंत को मांगने वाला ज्यादा लोभी है। इसकी ग्रीड, इसका लोभ बहुत ज्यादा है।

    लेकिन यह समझा रहा है कि क्या तुम मांगते हो, अरे मांगना, क्या क्षुद्र बातें मांगते हो। असल में मांगना ही क्षुद्रता है। आप जो भी मांगेंगे, मांगने की वृत्ति ही क्षुद्रता है । फिर आप किसलिए मांगें ? जो भी मांगेंगे वह कामना होगी, कम लोभ की होगी या ज्यादा लोभ की होगी। यह सवाल, प्रार्थना में मांग नहीं होनी चाहिए। प्रेम मांगता नहीं देता है। जहां प्रेम है वहां मांग नहीं होती; वहां दान होता है देना होता है । और जहां प्रेम नहीं होता वहां मांग होती है, शोषण होता है। हम कुछ शोषण करना चाहते हैं। प्रार्थना के नाम से परमात्मा का शोषण करना चाहते हैं । यह मिल जाए, वह मिल जाए, यह हमारी इच्छा है। हमारी इच्छाएं पूरी करें, परमात्मा हमारा सेवक हो जाए। हम जो चाहते हैं वह हमारा काम करता रहे। अगर करता रहे तो बहुत ऊंचा परमात्मा है – दयालु है, परम कृपालु है, पतितपावन है, जमाने भर की हम प्रशंसा के पदक उसको देंगे। क्योंकि वह हमारे काम करता रहे।

    ये सारी बातें हमारी प्रार्थनाएं नहीं । प्रार्थना तो चित्त की प्रेम की गहरी दशा है । और प्रेम ? प्रेम को समझना होगा तभी हम प्रार्थना को समझ सकते हैं। प्रेम क्या है ? साधारणतः हम सोचते हैं जिसे हम प्रेम कहते हैं वह प्रेम है? वह प्रेम नहीं है। सामान्यतः प्रेम के नाम से हम दूसरे व्यक्ति में अपने को भुलाने का उपाय खोजते हैं। किसी में हम अपने को भूला दें, भूला सकें उसके सौंदर्य में, उसके शरीर में, उसके व्यक्तित्व में, और कोई कारणों में, तो हमें लगता है कि हमारा बड़ा प्रेम है।

     - ओशो 

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