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    खोजो मत - ओशो

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    खोजो मत - ओशो 


    अहंकार चढ़ने में रस लेता है, उतरने में रस नहीं लेता । अहंकार कहता, चढ़ाओ कहीं ऊपर। और एक सीढ़ी, और एक सीढ़ी, और एक सीढ़ी। वह सीढ़ियां किसी भी चीज को हों, अहंकार कहता है, ऊपर चढ़ाओ। और इसलिए अहंकार मार्ग पकड़ता, पथ पकड़ता, टेक्नीक पकड़ता, गुरु पकड़ता, शास्त्र पकड़ता, सब पकड़ता । और धर्म कहता है, कूद जाओ, चढ़ने का यहां कहां उपाय ? यहां तो बिलकुल उतर जाओ आखिरी जहां उतर सकते हो। और उतरना भी हो सकता था अगर सीढ़ियां होतीं, उतरना है नहीं क्योंकि सीढ़ियां है नहीं, कूद ही सकते हो, छलांग लगा सकते हो।

    यह जो छलांग लगाने की हमारी हिम्मत नहीं जुटती है, तो हम कहते हैं, भई यह ज्यादा हो जाता है। तो थोड़ा सिम्पल करो, सरल करो। कोई टेक्नीक, कोई व्यवस्था, कोई विधि, जिसमें हम टुकड़े-टुकड़े में पा लें। एक खंड पहले पा लें, फिर एक खंड फिर पा लेंगे, इंस्टालमेंट में पा लें। वह हमारा खयाल होता है। वह इंस्टालमेंट में मिलता नहीं। और हर आदमी खोज रहा है—शांति खोज रहा है, सुख खोज रहा है, आनंद खोज रहा है। तो किसी आदमी को कहो, खोजो मत। तो वह कहता है, मर गए, क्योंकि जहां वह खड़ा है, वहां तो दुख ही दुख मालूम पड़ रहा उसे । उसे लगता है कि अगर न खोजूं तो फिर गया, क्योंकि जो मैं हूं, वहां तो दुख, चिंता के सिवाय कुछ भी नहीं है । और आप कहते हैं, मत खोजो। तो फिर मैं गया, फिर क्या होगा? लेकिन उसे पता ही नहीं है कि न खोजने की चित्त दशा क्या है ? न खोजने की चित्त - दशा उसने कभी जानी ही नहीं, वह सदा ही खोजता रहा है। कभी खिलौने खोजता था, कभी पदवियां खोजता था, कभी मोक्ष खोजता था।

    छोटा सा बच्चा खोजना शुरू कर देता है, मरता बुड्ढा तक खोजता रहता है। एक क्षण को पता नहीं चलता उसे कि न खोजना क्या? नो-सीकिंग क्या है? और तब वह कहता है, अगर नहीं खोजूंगा तो गए। तो हम खोज तो रहे नहीं थे पहले से। तो मेरे पास कोई आता है, वह कहता, मैं आपके पास इसलिए तो आया कि आप हमें खोज पर लगा दें। खोज तो हम पहले से नहीं कर रहे थे, अगर मिलना होता तो तभी मिल जाता । मैंने कहा, तुम खोज पर नहीं गए थे लेकिन कुछ और खोज रहे थे, यह नहीं खोज रहे थे । न खोज न थी वह।

    यह न खोज बात ही अलग है । और जैसे ही न खोज में कोई ठहर जाए, एक्सप्लोजन हो जाता है। वह जो उन्होंने पीछे कहा कि उनका कोई गुरु नहीं है, यह बात ठीक है । मेरा कोई गुरु नहीं है। लेकिन इस वजह से मैं गुरु को इनकार नहीं कर रहा हूं। और न इस वजह से इनकार कर रहा हूं, कि चूंकि मैं नहीं बता सकता कि सिस्टम क्या है, इसलिए भी इनकार नहीं कर रहा हूं। सिस्टम बनाने से आसान कोई चीज है दुनिया में? आदमी थोड़ा सोच-विचार जानता हो, सिस्टम बनाने में क्या तकलीफ है? बहुत सरल सी बात है व्यवस्था बना लेना तो । बड़ी बात तो अव्यवस्था में उतरना है । व्यवस्था बनाना तो बड़ी ही सरल बात है। अव्यवस्था में उतरना, अनार्की में उतरना ही बड़ी बात है । और उतने रेवल्यूशन का खयाल नहीं होता। अब वे जितने लोग थे, उन सबको जो कठिनाई हो रही, वह कठिनाई बहुत गहरी है । वह कठिनाई ये नहीं, वे सब डिफेंस में लगे हुए हैं। वह सारा जो पूरा वक्त है, एकदम डिफेंस में लगे हुए हैं। क्योंकि गए, अगर यह बात ठीक है, तो ये गुरु और ये साधना और यह जो चल रहा है, यह सब गया।

    वे डिफेंस में लगे हुए हैं पूरे वक्त कि नहीं, यह बात ठीक नहीं हो सकती, यह हम मान नहीं सकते । इसको हम कैसे मान सकते हैं? समझने का सवाल नहीं है। यह डिफेंस चल रहा है पूरे वक्त माइंड में। समझने का सवाल हो तो एकदम से बात दिखाई पड़ जाए। और इसलिए मेरी बात थोड़ी कठिन तो है । थोड़ी कठिन इसीलिए है कि हमारा माइंड जो चाहता है, वहमैं नहीं दे रहा हूं। और वह मैं दे नहीं सकता, क्योंकि उसे देना माइंड को परिपुष्ट करना है, उसे मजबूत करना है। और वह टूटना चाहिए, मजबूत होना नहीं चाहिए।

     - ओशो 

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