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    ध्यान की परिभाषा - ओशो

    Definition-of-Meditation-Osho


     ध्यान की परिभाषा - ओशो 

    ध्यान किसे कहते हैं, और उसे करने की क्या विधि है? 

    निर्विचार-चेतना ध्यान है। और निर्विचारणा के लिए विचारों के प्रति जागना ही विधि है।

    विचारों का सतत प्रवाह है मन। इसी प्रवाह के प्रति मूर्छित होना—सोए होना—अजाग्रत होना साधारणतः हमारी स्थिति है।

    इस मूर्छा से पैदा होता है तादात्म्य। मैं मन ही मालूम होने लगता हूं। जागें और विचारों को देखें।

    जैसे कोई राह चलते लोगों को किनारे खड़े होकर देखे। बस, इसे जागकर देखने से क्रांति घटित होती है। विचारों से स्वयं का तादात्म्य टूटता है— इस तादात्म्य-भंग के अंतिम छोर पर ही निर्विचार-चेतना का जन्म होता है। ऐसे ही, जैसे आकाश में बादल हट जाएं, तो आकाश दिखाई पड़ता है। विचारों से रिक्त चित्ताकाश ही स्वयं की मौलिक स्थिति है। वही समाधि है।

    ध्यान है विधि। समाधि है उपलब्धि।

    लेकिन, ध्यान के संबंध में सोचें मत। ध्यान के संबंध में विचारना भी विचार ही है। उसमें तो जाएं। डूबें। ध्यान को सोचें मत–चखें।

    मन का काम है सोना और सोचना। जागने में उसकी मृत्यु है। और ध्यान है जागना। इसीलिए मन कहता है—चलो, ध्यान के संबंध में ही सोचें। यह उसकी आत्म-रक्षा का अंतिम उपाय है। ___ इससे सावधान होना। सोचने की जगह, देखने पर बदल देना। विचार नहीं, दर्शन–बस, यही मूलभूत सूत्र है। दर्शन बढ़ता है, तो विचार क्षीण होते हैं। साक्षी जागता है, तो स्वप्न विलीन होता है।

    ध्यान आता है, तो मन जाता है। मन है द्वार, संसार का। ध्यान है द्वार, मोक्ष का। मन से जिसे पाया है, ध्यान में वह खो जाता है। मन से जिसे खोया है, ध्यान में वह मिल जाता है।

    - ओशो 

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