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    तुम्हारा परमात्मा कहीं तुम्हारा इल्यूजन तो नहीं - ओशो

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    तुम्हारा परमात्मा कहीं तुम्हारा इल्यूजन तो नहीं - ओशो 


    केदारनाथ हिमालय में थे कोई तीस वर्ष तक । और तीस वर्ष में उनको पक्का अनुभव हो गया कि भगवान के दर्शन हो गए हैं। भगवान रोज दिखाई पड़ने लगें, बात- चीज होने लगीं, सब दर्शन हो गए। शक का कोई उपाय भी न था। जब सामने ही भगवान दिखते हों तब और क्या संदेह करना। बात होती हो, चीत होती हो। और अकेले थे। फिर वहां से लौटे। लौट कर उन्हें एक, नीचे आकर, क्योंकि जो भगवान उन्हें दिखते थे, उनके पड़ोसी को तो नहीं दिखते थे। तो उन्हें एक शक पकड़ा कि कहीं यह मेरा इल्यूजन ही तो नहीं है सिर्फ, यह जो मैं देख रहा हूं? तीस साल निरंतर भूखे-प्यासे, इसी - इसी की धारणा करने से कहीं दिखाई तो नहीं पड़ने लगा ? तो उन्होंने कहा कि वह जो अभ्यास करता रहा हूं, उसे छोडूं कुछ दिन के लिए, और फिर भी अगर ये दिखाई पड़ते रहें तो समझंगा कि अभ्यासजन्य नहीं है, सच में हैं। लेकिन अभ्यास गया कि भगवान गया। वह तो अभ्यासजन्य है।

    एक सूफी फकीर को मेरे पास लाया गया। तो वह, सबमें भगवान दिखाई पड़ते हैं उसे – पौधे में, पत्थर में - सबमें भगवान दिखाई पड़ते हैं। चलता भी है रास्ते पर तो सब तरफ भगवान को ही देखता हुआ। बड़ा आनंदित। मेरे पास उसे कुछ मुसलमान लेकर आए। उन्होंने कहा कि बहुत अदभुत फकीर है। सब तरफ भगवान ही भगवान, कण-कण में वही दिखाई पड़ते हैं।

    मैंने उनको कहा कि यह आपको अचानक दिखाई पड़े या आपने कोई इंतजाम और योजना की थी।

    उन्होंने कहा कि अचानक तो कुछ भी नहीं हो सकता। और अचानक का भरोसा भी नहीं किया जा सकता। जैसा अभी महेश जी ने कहा, अचानक का भरोसा भी नहीं किया जा सकता। तो व्यवस्था की मैंने, साधना की, एक-एक चीज में भगवान देखना शुरू किया। फूल दिखे तो मैं कहूं भगवान है। लेकिन वह तीस साल पहले की बात है । फिर निरंतर अभ्यास । करते-करते, करते-करते दिखाई पड़ने लगा । अब तो भगवान मुझे सब जगह दिखाई पड़ता है।

    तो मैंने उनसे कहा कि आप तीन दिन मेरे पास रुक जाएं और अभ्यास बंद कर दें।

    उन्होंने कहा, अभ्यास में कैसे बंद कर सकता हूं?

    मैंने कहा, अब भी आप अभ्यास बंद नहीं कर सकते। जब कि भगवान दिखाई पड़ने लगा सब तरफ। तो अब भी आपके अभ्यास पर निर्भर है उसका दिखाई पड़ना, यानि अभी भी वह दिखाई नहीं पड़ा है!

    तो उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसा नहीं, मुझे तो दिखाई पड़ने लगा है।

    तो मैंने कहा, तीन दिन तक रुक जाएं।

    तो वे तीन दिन मेरे पास रुक गए।

    शायद दूसरे दिन कि रात को ही कोई दो बजे रात उन्होंने रोना शुरू किया। तो मैं उठ कर गया, मैंने कहा, क्या हुआ ?

    बहुत चिल्लाने लगे कि मेरा सब बर्बाद कर दिया, सब मेरा नष्ट हो गया। और मैं कैसे आदमी के पास आ गया, किस कर्मों के फल की वजह से मैं आपके पास आया। मेरा तो सब खो गया । कोई डेढ़ दिन से अभ्यास नहीं किया तो मुझे कुछ नहीं दिखाई पड़ता। फूल फूल दिखाई पड़ता है, पत्ता पत्ता दिखाई पड़ता है, मेरा सब अनुभव नष्ट हो गया।

    मैंने उनको कहा कि जो अनुभव तीस साल साधने से दिखा और डेढ़ दिन न साधने से खो जाए, उस अनुभव का मतलब समझते हैं? वह आपका प्रोजेक्शन है, जिसको कांसटेंटली प्रोजेक्ट करते रहो, तो ही खड़ा रह सकता है, नहीं तो खड़ा नहीं रह सकता। आपने, जैसे कि हम फिल्म प्रोजेक्ट कर रहे हैं, तो वहां पर्दे पर कुछ है तो है नहीं, वह हम प्रोजेक्ट कर रहे हैं तो है। और एक सेकेंड को यहां प्रोजेक्शन का बंद किया काम कि वहां फिल्म नदारद हुई, वहां पर्दा खो गया, खाली हो गया। जैसे पर्दे पर हम कुछ चीजें देख सकते हैं, वैसे ही हम मन के पर्दे पर प्रोजेक्ट कर सकते हैं। लेकिन जब तक वह जारी रहेगा, तब तक वे दिखाई पड़ती रहेंगी । और मेरा कहना यह है कि वह दिखाई पड़ना चाहिए, जो हमारे अभ्यास पर निर्भर न हो ।

    इसलिए मैं सिस्टम का विरोधी हूं, क्योंकि सिस्टम हमारी होगी, टेक्नीक हमारा होगी। महेश जी ने जो कहा, उन्होंने ठीक कहा कि यह ज्यादा सेफ है, सुरक्षित है, व्यवस्थित है, सब गणित का हिसाब है। इसको ऐसा करोगे तो ऐसा होगा । और ये बिलकुल ठीक कह रहे हैं, वह ऐसा करोगे तो ऐसा होगा। लेकिन वह जो होगा, वह इस करने पर निर्भर है, वह इसकी बाइ-प्रोडक्ट है। वह ऐसा कर रहे हैं, इसीलिए हो रहा है। यानि यह ऐसा है जैसे कि मैंने शराबी पी और मुझे बड़े-बड़े फूल दिखाई पड़ने लगे और मैंने आपसे कहा कि आप भी शराब पीओ तो आपको भी बड़े-बड़े फूल दिखाई पड़ेंगे। अगर न दिखाई पड़ें तो मुझसे आप कहना । आपने भी शराब पी है और आपको भी बड़े फूल दिखाई पड़े। और आपने कहा बिलकुल ठीक कहते थे, फूल बड़े दिखाई पड़ते, फूल बड़े हैं। शराब ने अगर फूल बड़े दिखा दिए तो फूल बड़े नहीं होते, शराब सिर्फ आपकी स्टेट ऑफ माइंड को हिप्नोटिक कर देती है, कुछ और नहीं होता।

    सवाल यह नहीं है कि हम क्या देख लें, सवाल यह है कि क्या है? यह सवाल नहीं है कि हम क्या रिलाइज कर लें, सवाल यह है कि व्हाट इज़? है क्या असल में? हमें कुछ नहीं रिलाइज नहीं करना है, हमें कुछ प्रोजेक्ट नहीं करना, हम कोई पक्का लेकर नहीं जाते कि हमको यह देखना है, यह अनुभव करना है, यह प्रतीति करनी है। पक्का करके जाएंगे तो सब हो जाएगा, क्योंकि माइंड का जाल इतना अदभुत है, खेल इतना अदभुत है कि माइंड सब चीजें दिखला देता है जो आप देखना चाहें। इसमें कोई कठिनाई नहीं ।

     - ओशो 

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