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    विचारों से कैसे मुक्त हों - ओशो

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    विचारों से कैसे मुक्त हों - ओशो 

    विचारों से मुक्ति का क्या उपाय है?

    साधारणतः जब तक मनुष्य प्रत्येक विचार की गति के साथ गतिमय होता रहता है, तब तक उसे विचारों से पैदा हो रही अशांति का अनुभव ही नहीं होता है। लेकिन जब वह रुककर—ठहरकर विचारों को देखता है, तभी उसे उनकी सतत दौड़ और अशांति का प्रत्यक्ष होता है।

    विचारों से मुक्ति की दिशा में यह आवश्यक अनुभूति है। हम खड़े होकर देखें तभी विचारों की व्यर्थ भागदौड़ का पता चल सकता है। निश्चय ही, जो उनके साथ ही दौड़ता रहता है, वह इसे कैसे जान सकता है।

    विचारों की प्रक्रिया के प्रति एक निर्वैयक्तिक भाव को अपनाएं—एकमात्र दर्शक का भाव। जैसे देखने-मात्र से ज्यादा आपका उनसे और कोई संबंध नहीं। और जब विचारों के बादल मन के आकाश को घेरें, और गति करें, तो उनसे पूछे—'विचारो। तुम किसके हो?...क्या तुम मेरे हो?' और आपको स्पष्ट उत्तर मिलेगा— 'नहीं, तुम्हारे नहीं।'

    निश्चय ही यह उत्तर मिलेगा, क्योंकि विचार आपके नहीं हैं। वे आपके अतिथि हैं। आपको सराय बनाया हुआ है। उन्हें अपना मानना भूल है। और वही भूल उनसे मुक्त नहीं होने देती है। उन्हें अपना मानने से जो तादात्म्य पैदा होता है, वही तो विसर्जित नहीं होने देता है। ऐसे, जो मात्र अतिथि हैं, वे ही स्थायी निवासी बन जाते हैं।

    विचारों को निर्वैयक्तिक भाव से देखने से क्रमशः उनसे संबंध टूटता है। जब कोई वासना उठे या विचार, तब ध्यान दें कि यह वासना उठ रही है—या कि विचार उठ रहा है। फिर देखें और जानें कि अब विलीन हो रहा है—अब विलीन हो चुका है। अब दूसरा विचार उठ रहा है...विलीन हो गया है।

    और इस भांति शांति से, अनुद्विय भाव से दर्शक की भांति साक्षी बनकर विचारों की सतत धारा का निरीक्षण करें। इस भांति शांत चुनावरहित निरीक्षण से विचारों की गति क्षीण होती जाती है, और अंततः निर्विचार-समाधि उपलब्ध होती

    निर्विचार-समाधि में विचार तो विलीन हो जाते हैं और विचारशक्ति का उदभव होता है। उस विचारशक्ति को ही मैं प्रज्ञा कहता हूं।

    विचारशक्ति के जागरण के लिए विचारों से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है।

    - ओशो 

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