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    शून्य कैसे हों? - ओशो

     
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    शून्य कैसे हों? - ओशो 

    शून्य से पूर्ण का दर्शन होता है। और शून्य आता है विचार-प्रक्रिया के तटस्थ, चुनावरहित साक्षी-भाव से। विचार में शुभाशुभ का निर्णय नहीं करना है। वह निर्णय राग या विराम लाता है। किसी को रोक रखने और किसी को परित्याग करने का भाव उससे पैदा होता है। वह भाव ही विचार-बंधन है। वह भाव ही चित्त का जीवन और प्राण है। उस भाव के आधार पर ही विचार की श्रृंखला अनवरत चलती जाती है। __विचार के प्रति कोई भी भाव हमें विचार से बांध देता है। उसके तटस्थ साक्षी का अर्थ है, विचार को निर्भाव के बिंदु से देखना। विचार को निर्भाव के बिंदु से देखना ध्यान है। बस, देखना है, जस्ट सीइंग और चुनाव नहीं करना है, और निर्णय नहीं लेना है।

    यह—'बस देखना'—बहुत श्रमसाध्य है। यद्यपि कुछ करना नहीं है, पर कुछ न कुछ करते रहने की हमारी इतनी आदत बनी है कि कुछ 'न करने जैसा' सरल और सहज कार्य भी बहुत कठिन हो गया है। बस, देखने-मात्र के बिंदु पर स्थिर होने से क्रमशः विचार विलीन होने लगते हैं। वैसे ही, जैसे प्रभात में सूर्य के उत्ताप में दूब पर जमे ओसकण वाष्पीभूत हो जाते हैं।

    बस, देखने का उत्ताप विचारों के वाष्पीभूत हो जाने के लिए पर्याप्त है। वह राह है जहां से शून्य उदघाटित होता है और मनुष्य को आंख मिलती है और आत्मा मिलती है।

    - ओशो 

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