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    जिस व्यक्ति को जितने गहरे सत्य की तरफ जाना हो, उतने सुरक्षा के इंतजाम छोड़ कर जाना चाहिए - ओशो

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    जिस व्यक्ति को जितने गहरे सत्य की तरफ जाना हो, उतने सुरक्षा के इंतजाम छोड़ कर जाना चाहिए - ओशो 


    संन्यासी का मतलब हैः जो कहता है, हम कोई सिक्योरिटी नहीं मांगते, हम इनसिक्योरिटी में जीते हैं। हम नहीं कहते कि कल कुछ मिलेगा कि नहीं मिलेगा। कल सुबह देखेंगे। यह आदमी बुरा या भला, हम क्यों सोचें ? बहुत से बहुत यह होगा कि रात बिस्तर ले जाएगा उठा कर तो ले जाएगा । ये मैं काहे के लिए निर्णय करूं कि यह आदमी कैसा है ? हम कुछ सोचते ही नहीं। हम जीते हैं चुपचाप एक-एक क्षण में। इतनी इनसिक्योरिटी में जो जीता है, उसके ही माइंड में एक्सप्लोजन हो सकता है। क्योंकि माइंड फिर जी नहीं सकता, माइंड को मरना पड़ेगा। माइंड को चाहिए थी सुव्यवस्था, वह व्यवस्था खतम हो गई। वह कहता था, खीसे में पैसे लेकर चलो। वह कहता था, बैंक में इंतजाम रखो। वह कहता था, भगवान केपास भी पुण्य की व्यवस्था रखो । सब हिसाब करके रखो ताकि कुछ गड़बड़ न हो जाए। और जितना ज्यादा हिसाब, उतनी मृत चीज उपलब्ध होती है।

    वे जो कह रहे थे न कि इतनी सेफ्टी, इतनी... तो बहुत लंबा हो गया था, कुछ बात करने का मतलब न था। वह जितनी सिक्योरिटी, जितनी सेफ्टी, उतना डेड आदमी । और जितनी इनसिक्योरिटी, जितनी जोखिम, जितनी रिस्क, उतना लिविंग आदमी । और मजा यह कि भगवान के मामले में भी जोखिम लेने की तैयारी न हो, वहां भी हम पक्का ही करके चलें सब, तो फिर, फिर बहुत मुश्किल होगी।

    भगवान का मतलब यह है, वह जो अननोन हमें चारों तरफ से घेरे हुए हैं, उसमें तो हमें कूद पड़ना पड़ेगा किनारे को छोड़ कर। किनारा सिक्योर था बिलकुल । वहां कोई खतरा न था । डूबने का कोई डर न था किनारे पर, किनारा बहुत सुरक्षित है। और किनारे पर जो खड़ा है, वह जिंदगी भर खड़ा रह सकता है। लेकिन सागर का अनुभव तो उसी को मिलता है जो कूद जाए किनारे से। खतरा है वहां । खतरा है इसलिए जिंदगी है वहां । और हमारा मन चूंकि यह निरंतर ये मांग करता है कि सब व्यवस्थित, सिस्टेमैटिक होना चाहिए।

    और बड़े मजे की बात यह है कि जिंदगी बिलकुल सिस्टेमैटिक नहीं है, जिंदगी बहुत अनार्किक है । और अनार्किक है इसीलिए लिविंग है। आप फर्क कर लें, एक पत्थर बहुत सिस्टेमैटिक है, एक फूल उतना सिस्टेमैटिक नहीं है। फूल में जिंदगी है। पत्थर कल भी वहीं था, आज भी वहीं है, परसों भी वहीं होगा और फूल सुबह वहां था, सांझ नहीं है। उसका कोई भरोसा नहीं है। अभी है, जोर की हवा चलेगी, गिर जाएगा। अभी है, सूरज निकलेगा, कुम्हला जाएगा। अभी है, वर्षा आएगी, मिट जाएगा। पत्थर वहीं होगा, पत्थर बहुत सिस्टेमैटिक है। कहना चाहिए, पत्थर बहुत कंसिस्टेंट है। जैसा है वैसा ही सदा वहीं बैठा हुआ है। लेकिन पत्थर डेड है इसी अर्थों में। और फूल में एक लिविंग क्वालिटी है।

    तो मेरा कहना यह है कि जिस व्यक्ति को जितने गहरे सत्य की तरफ जाना हो, उतने सुरक्षा के इंतजाम छोड़ कर जाना चाहिए। उसे जान लेना चाहिए कि खतरे में मैं जाता हूं। सुरक्षित तो जिंदगी यहीं है, वहां तो खतरा है। लेकिन जो परम खतरे में उतरने की तैयारी करता है, इस खतरे में उतरने की तैयारी ही उसके भीतर ट्रांसफार्केशन बन जाती है। क्योंकि इस खतरे में जाना, बदल जाना है। सब व्यवस्था छोड़ कर, सब सुरक्षा छोड़ कर जो उतर जाता है अनजान में, यह उतरने की तैयारी ही, यह करेज ही उसके भीतर म्यूटेशन बनता, उसके भीतर परिवर्तन हो जाता है । और जितनी बड़ी असुरक्षा में जाने को हम तैयार हैं, उतने ही हम वस्तुतः सुरक्षित हो जाते हैं, क्योंकि इसमें कोई भय न रहा, कोई डर न रहा।

     - ओशो 

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