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    हम भीतर हैं ही, इसलिए भीतर जाने का सवाल नहीं है - ओशो

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    हम भीतर हैं ही, इसलिए भीतर जाने का सवाल नहीं है - ओशो 


    प्रश्नः वे ऐसे समझाते, अंदर जाने का भी रास्ता है।

    यह जो कठिनाई है न, असल में मजा यह है कि रास्ता मात्र बाहर जाने का होता, क्योंकि अंदर तो हम हैं । जो कठिनाई है, ऐसा तो है नहीं कि हम बाहर हो गए हैं और अंदर आना है। अगर इसको ठीक से हम समझें तो ऐसा तो हो नहीं गया कि बाहर हैं और हमें अंदर आना है। हम तो अंदर हैं ही, इसमें कोई उपाय ही नहीं है बाहर होने का। इसमें अगर कोई उपाय भी होता तो फिर उलटा उपाय भी होता । यानि आप क्या करके बाहर हो सकते हैं, मुझे बताइए ? आप बाहर हो कैसे सकते हैं? आप जहां भी जाएंगे, भीतर ही होंगे। बाहर जाने का तो कोई उपाय नहीं। लेकिन बाहर की कल्पना भर हो सकती है। आप जा नहीं सकते बाहर। आप यहां बैठे हैं, आप कलकत्ता नहीं जा सकते; लेकिन कलकत्ता जाने का सपना देख सकते हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। आंख बंद करके आप कलकत्ते जा भी सकते हैं — इस अर्थ में कि विचार चला जाए। आप लेकिन फिर भी यहीं होंगे। आप होंगे यहीं, आप होंगे अपने भीतर ही ।

    तो जो समझने की बात यह है कि हम भीतर तो हैं ही, इसलिए भीतर जाने का सवाल नहीं है। हम बाहर किन-किन रास्तों से चले गए हैं, उन रास्तों को छोड़ देने का सवाल है। जो प्रॉब्लम है असल में, अगर मैं इसी कमरे में बैठा हुआ हूं, तो मुझे इसी कमरे में आना नहीं है । सवाल सिर्फ यह है कि मुझे यह कमरा मिट गया, मुझे कलकत्ता दिखाई पड़ रहा है । तो मैं विचार की किसी यात्रा से कलकत्ता पहुंच गया हूं । हूं इसी कमरे में, लेकिन एक अर्थ में कलकत्ते में हूं, यह कमरा मुझे दिखाई ही नहीं पड़ रहा, मैं कलकत्ते की स्टेशन पर खड़ा हुआ हूं, वह स्टेशन मुझे दिखाई पड़ रही है। तो मेरे सामने सवाल है कि मैं अपने घर कैसे वापस लौट जाऊं? अगर सच ही मैं कलकत्ता पहुंच गया होता तो कोई ट्रेन पकड़नी पड़ती, कोई कार पकड़नी पड़ती, कोई रास्ता पकड़ना पड़ता। अगर सच ही कलकत्ता पहुंच गया होता तो फिर इस कमरे तक आने के लिए कोई रास्ता पकड़ना ही होता। लेकिन चूंकि मैं सच में पहुंचा नहीं हूं, सिर्फ ड्रीम कर रहा हूं, इसलिए आने के लिए न कोई रास्ता, और अगर मैंने रास्ता पकड़ा तो और भटकाने वाला होगा, क्योंकि ड्रीम में पकड़े गए रास्तों का क्या मतलब हो सकता है?

    सिर्फ सवाल इतना है कि मैं इस तथ्य के प्रति जाग जाऊं कि मैं तो भीतर हूं ही, सिर्फ मेरा विचार बाहर चला गया और मैं कभी अपने भीतर के बाहर नहीं गया। तो फिर अब सवाल क्या है?

    अब सवाल यह रह गया है कि विचार न जाए। और विचार चला क्यों गया ?

    मैंने भेजा है इसलिए चला गया। और मैंने भेजा इसलिए कि कलकत्ते में कुछ मिलने को है, जो यहां नहीं मिल रहा है, इसलिए चला गया। कोई आकांक्षा है, जो वहां तृप्त होती, यहां तृप्त नहीं हो रही, इसलिए चला गया।

     - ओशो 

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