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    यदि हम क्षण भर को भी पूर्ण मौन में हो सकें, कंपलीट सायलेंस में हो सकें, तो हम उसे जान लेंगे - ओशो

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    यदि हम क्षण भर को भी पूर्ण मौन में हो सकें, कंपलीट सायलेंस में हो सकें, तो हम उसे जान लेंगे - ओशो 


    पहली बात तो ये समझें कि हम अज्ञानी हैं — परम अज्ञानी, एब्सल्यूट इग्नोरेंट हैं सत्य के संबंध में। यह पहला कृत्य होगा, यह पहला चरण होगा: मंदिर का, परमात्मा का । और जब परम अज्ञान है हमारा और दूसरे के ज्ञान से ज्ञान नहीं मिल सकता — कितनी ही गीता कंठस्थ करो और कितने ही ब्रह्म सूत्र पढ़ो, ज्ञान नहीं मिल सकता है किसी किताब से, न किसी गुरु से । ट्रांसफरेबल नहीं है। वह कोई ऐसी चीज नहीं है कि किसी ने मुट्ठी भरी और आपको दे दी। अगर ऐसा होता तो एक ही गुरु सारी दुनिया में ज्ञान बांट जाता। फिर कोई जरूरत न थी। कोई किसी को ज्ञान दे नहीं सकता। अगर मृत्यु को जानना है तो खुद मरना पड़ता है और अगर ज्ञान को उपलब्ध करना है तो खुद उस मार्ग से गुजरना पड़ता है, जहां ज्ञान उपलब्ध होता है।

    क्या है वह मार्ग ?

    समस्त विचारों से मुक्त हो जाना, पूर्ण शून्य में ठहर जाना, मौन, पूर्ण मौन में उतर जाना वह मार्ग है।

    यदि हम क्षण भर को भी पूर्ण मौन में हो सकें, कंपलीट सायलेंस में हो सकें, तो हम उसे जान लेंगे — जो है । क्यों ? आखिर मौन में होने से क्यों जान लेंगे ?

    जब तक हमारा मन शब्दों से भरा है, विचारों से भरा है, तब तक बेचैन है । तब तक ऐसा है— जैसे झील पर तरंगें हों। चांद है आकाश में और झील तरंगों से भरी है, तो चांद का प्रतिबिंब नहीं बनता फिर झील में । और फिर झील शांत हो गई, कोई तरंग नहीं है, झील मौन हो गई, एक लहर भी नहीं है झील की छाती पर, झील बिलकुल शांत; शांत हो गई है, तो झील एक दर्पण बन जाती और चांद उसमें प्रतिफलित हो जाता, रिफ्लेक्ट हो जाता, दिखाई पड़ने लगता।

    मौन की स्थिति में हम बन जाते हैं दर्पण, शांत और जो है वह उसमें प्रतिफलित हो जाता, उसमें दिखाई पड़ जाता है। मनुष्य को बनना है दर्पण; चुप, एक लहर भी न हो मन पर। तो उसी क्षण में, जो है, उसी का नाम परमात्मा हम कहें, सत्य कहें, जो भी नाम देना चाहें। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता है। नाम के झगड़े सिर्फ बच्चों के झगड़े हैं। कोई भी नाम दे 

    दें- दें – एक्स, व्हाई, जेट कहें तो भी चलेगा। वह जो है, अननोन, अज्ञात, वह हमारे दर्पण में प्रतिफलित हो जाता है और हम जान पाते हैं। तब है आस्तिकता, तब है धार्मिकता । तब धार्मिक व्यक्ति का जन्म होता है।

    अदभुत है आनंद उसका। सत्य को जान कर कोई दुखी हुआ हो, ऐसा सुना नहीं गया। सत्य को बिना जाने कोई सुखी हो गया हो, ऐसा भी सुना नहीं गया । सत्य को जाने बिना आनंद मिल गया हो किसी को, इसकी कोई संभावना नहीं है। सत्य को जान कर कोई आनंदित न हुआ हो, ऐसा कोई अपवाद नहीं है। सत्य आनंद है, सत्य अमृत है, सत्य सब कुछ है। जिसकी हमारे लिए आकांक्षा है, जिसे पाने की प्यास है, प्रार्थना है। लेकिन हम दर्पण नहीं हैं, जिसमें सत्य प्रतिफलित हो सके।

     - ओशो 

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