जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हआ है - ओशो
जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हआ है - ओशो
हम जिसे सुख कहते हैं, धर्म उसे सुख नहीं कहता। है भी नहीं, हम भलीभांति जानते हैं। जिसे हम सुख कहते हैं, वह थोड़ी सी देर के लिए किसी तनाव से मुक्ति है।... नकारात्मक है, निगेटिव है।
एक आदमी थोड़ी देर के लिए शराब पी लेता है, और सोचता है सुख में है! एक आदमी थोड़ी देर के लिए सेक्स में उतर जाता है, और सोचता है सुख में है! एक आदमी थोड़ी देर के लिए संगीत सुन लेता है, और सोचता है कि सुख में है। एक आदमी बैठकर गपशप कर लेता है, हंसी-मजाक कर लेता है, हंस लेता है, और सोचता है कि सुख में है!
ये सारे सुख तंग जूते को सांझ उतारने से भिन्न नहीं हैं, उनका सुख से कोई संबंध नहीं है। सुख एक पॉजिटिव, एक विधायक स्थिति है— नकारात्मक नहीं। सुख छींक जैसी चीज नहीं है कि आपको छींक आ जाती है, और पीछे थोड़ी राहत मिलती है। क्योंकि छींक परेशान कर रही थी। वह एक नकारात्मक चीज नहीं है कि एक बोझ मन से उतर जाता है, और पीछे अच्छा लगता है।
सुख एक विधायक अनुभव है। लेकिन बिना ध्यान के वैसा विधायक सुख किसी को अनुभव नहीं होता। और जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हआ है। सारी शिक्षा, सारी सभ्यता—आदमी को दूसरों से कैसे संबंधित हों, यह तो सिखा देती है। लेकिन अपने से कैसे संबंधित हों, यह नहीं सिखाती।
समाज आपको एक फंक्शन से ज्यादा नहीं मानता। अच्छे दुकानदार हों, अच्छे नौकर हों, अच्छे पति हों, अच्छी मां हों, अच्छी पत्नी हों—बात समाप्त हो गयी; आपसे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए समाज की सारी शिक्षा उपयोगिता है, यूटिलिटि है। समाज सारी शिक्षा ऐसी देता है, जिससे कुछ पैदा होता हो। आनंद से कुछ भी पैदा होता नहीं दिखाई पड़ता। आनंद कोई कमोडिटी नहीं है, जो बाजार में बिक सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे रुपए में भंजाया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे बैंक-बैलेंस में जमा किया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसकी बाजार में कोई कीमत हो सके। इसलिए समाज को आनंद से कोई प्रयोजन नहीं है। और कठिनाई यही है कि आनंद भर एक ऐसी चीज है, जो व्यक्ति के लिए मूल्यवान है; बाकी कुछ भी मूल्यवान नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता जाता है, यूटिलिटेरियन होता है— सब चीजों की उपयोगिता होनी चाहिए।
- ओशो
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