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    आदमी ऊपर की पर्त पर जीता है - ओशो

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    आदमी ऊपर की पर्त पर जीता है - ओशो 

    पहली बात तो यह कि साधारणतः जब हम बोलते हैं, तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर कौन से विचार चलते थे। ध्यान का विज्ञान इस स्थिति को अत्यंत ऊपरी अवस्था मानता है। अगर एक आदमी न बोले, तो हम पहचान भी न पाएं कि वह कौन है, क्या है।

            शब्द हमारे बाहर प्रकट होता है, तभी हमें पता चलता है—हमारे भीतर क्या था। ध्यान का विज्ञान कहता है, यह अवस्था सबसे ऊपरी अवस्था है चित्त की; सरफेस है, ऊपर की पर्त है। हम नहीं बोले होते हैं, तब भी पहले उसके विचार भीतर चलता है; अन्यथा हम बोलेंगे कैसे? अगर मैं कहता हूं ओम—तो इसके पहले कि मैंने कहा- मेरे भीतर, ओठों के पार, मेरे हृदय के किसी कोने में ओम का निर्माण हो जाता है। ध्यान कहता है, यह दूसरी पर्त है व्यक्तित्व की गहराई की।

            साधारणतः आदमी ऊपर की पर्त पर ही जीता है, उसे दूसरी पर्त का भी पता नहीं होता। उसके बोलने की दुनिया के नीचे भी एक सोचने का जगत है, उसका भी उसे कुछ पता नहीं होता। काश, हमें हमारे सोचने के जगत का पता चल जाए, तो हम बहुत हैरान हो जाएं। जितना हम सोचते हैं, उसका बहुत थोड़ा सा हिस्सा वाणी में प्रकट होता है। ठीक ऐसे ही, जैसे एक बर्फ के टुकड़े को हम पानी में डाल दें, तो एक हिस्सा ऊपर हो और नौ हिस्सा नीचे डूब जाए। हमारा भी नौ हिस्सा जीवन का, विचार का तल नीचे डूबा रहता है; एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता है। 

            इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि आप क्रोध कर चुकते हैं, तब आप कहते हैं कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने क्रोध किया। एक आदमी हत्या कर देता है, फिर पछताता है कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने हत्या की! इनस्पाइट ऑफ मी...वह कहता है, मेरे बावजूद यह हो गया, मैंने तो कभी ऐसा करना ही नहीं चाहा था। उसे पता नहीं कि हत्या आकस्मिक नहीं है, पहले भीतर निर्मित होती है। लेकिन वह तल गहरा है, और उस तल से हमारा कोई संबंध नहीं रह गया।

    - ओशो 

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